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________________ उत्तरज्झयणाणि का संयम करने वाले याजक की प्रधानता है। 1 तीसरा प्रश्न है— नक्षत्रों में प्रधान क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया-नक्षत्रों में प्रधान चन्द्रमा है। इनकी तुलना गीता के नक्षत्राणामहं शशी (१०।२१ ) से होती है । (१) स्वजन आदि का स्थान प्राप्त करने के लिए चौथा प्रश्न है- धर्मों का उपाय (आदि कारण ) कौन है ? इसके उत्तर में कहा गया- धर्मों का उपाय काश्यप है। यहां काश्यप शब्द के द्वारा भगवान् ऋषभ का ग्रहण किया गया है । वृत्तिकार ने इसके समर्थन में एक आरण्यक वाक्य उद्धृत किया है- “तथा चारण्यकम् — ऋषभ एव भगवान् ब्रह्मा, तेन भगवता ब्रह्मणा स्वयमेव चीर्णानि ब्रह्माणि यदा च तपसा प्राप्तः पदं यद् ब्रह्मकेवलं तदा च ब्रह्मर्षिणा प्रणीतानि कानि पुनस्तानि ब्रह्माणि ?"" इत्यादि । (२) प्रव्रज्या पर्याय से गृहवास के पर्याय में आने के लिए। आर्यवचन (अज्जवयण) १५. किन्तु यह वाक्य किस आरण्यक का है यह हमें ज्ञात नहीं हो सका । वृत्ति रचनाकाल में हो सकता है, यह किसी आरण्यक में हो और वर्तमान संस्करणों में प्राप्त न हो । या यह भी हो सकता है कि जिन प्रतियों में यह वाक्य प्राप्त था वे आज उपलब्ध न हों । वृत्तिकार ने अपने प्रतिपाद्य का समर्थन ब्रह्माण्डपुराण के द्वारा भी किया है। स्थानाङ्ग में सात मूल गोत्र बतलाए गए हैं। उनमें पहला काश्यप है । भगवान् ऋषभ ने वार्षिक तप के पारणा में 'काश्य' अर्थात् रस पिया था, इसलिए वे 'काश्यप' कहलाए । मुनि सुव्रत और नेमिनाथ इन दो तीर्थकरों के अतिरिक्त सभी तीर्थंकर काश्यप गोत्री थे।* धनंजय नाममाला में भगवान् महावीर का नाम 'अन्त्यकाश्यप' है ।' भगवान् ऋषभ ' आदिकाश्यप हुए। उनसे धर्म का प्रवाह चला, इसलिए उन्हें धर्मों का आदि कारण कहा गया है। ४०६ सूत्रकृतांग के एक श्लोक से इस तथ्य की पुष्टि होती है ! वहां कहा गया है कि अतीत में जो तीर्थंकर हुए तथा भविष्य में जो होंगे वे सब 'काश्यप' के द्वारा प्ररूपित धर्म का अनुसरण करेंगे।" १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२५ । २. वही, पत्र ५२५ भवतां ब्रह्माण्डपुराणमेव सर्गादिपुराणलक्षणोपेतत्वात् सकलपुराणज्येष्ठम् .... तद्वचस्त्विदम्- “इह हि इक्ष्वाकुकुलवंशोद्भवेन नाभिसुतेन मरुदेव्या नन्दनेन महादेवेन ऋषभेण दशप्रकारो धर्मः स्वयमेव चीर्णः, केवलज्ञानलम्भाच्च महर्षिणो ये परमेष्ठिनो वीतरागाः स्नातका निर्ग्रन्था नैष्ठिकास्तेषां प्रवर्तित आख्यातः प्रणीतस्त्रेतायामादावित्यादि ।” ३. ठाणं ७।३० : सत्त मूलगोत्ता पं० तं०—– कासवा गौतमा वच्छा कोच्छा कोसिआ मंडवा वासिट्ठा । ४. वही, ७।३० वृत्ति: काशे भवः काश्य:- रसस्तं पीतवानिति काश्यपस्तदपत्यानि काश्यपाः, मुनिसुव्रतनेमिवर्जा जिनाः । ५. धनंजय नाममाला, श्लोक ११५ : सन्मतिर्महतिवीरो महावीरो ऽन्त्यकाश्यपः । नाथान्वयो वर्धमानो, यत्तीर्थमिह साम्प्रतम् ।। अध्ययन २५ : श्लोक २०-२२ टि० १४-१८ पांचवां प्रश्न है-अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ कौन है ? इसका उत्तर श्लोक १८ से ३३ तक विस्तार से दिया गया है । १४. आने पर ( आगंतु) वृत्तिकार ने ‘आगंतुं' पद में तुम् प्रत्यय को आधार मान कर इसके दो अर्थ किए हैं Jain Education International विभिन्न संदर्भों में आर्य शब्द के अनेक अर्थ किए गए हैं। यहां इसका अर्थ अहिंसा धर्म का प्रतिपादन करने वाला है। तीर्थंकर अहिंसा धर्म का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए वृत्तिकार ने 'आर्य' का अर्थ तीर्थंकर किया है। आर्यवचनतीर्थंकर की वाणी -आगम।" १६. अग्नि में तपाकर शुद्ध किए हुए (निद्धंतमलपावगं ) बृहद्वृत्ति में 'पावक' के दो अर्थ प्राप्त हैं—पापक अनिष्ट और पावक— अग्नि।" सुखबोधा में इसका एक ही अर्थ प्राप्त है पावक अग्नि।" १७. पिसे हुए (जहामट्ठ) स्वर्ण की तेजस्विता को बढ़ाने के लिए मनःशिला आदि से उसे घिसा जाता है। इससे स्वर्ण में चमक-दमक आ जाती है। यह आमृष्ट का अर्थ है। १८. पिंडीभूत स्थावर जीवों को (संगहेण य थावरे ) वृत्तिकार ने संग्रह शब्द का मुख्य अर्थ संक्षेप और वैकल्पिक अर्थ वर्षाकल्प ——वर्षाऋतु में उपयोग में आने वाला मुनि का एक उपकरण किया है।” उन्होंने 'च' शब्द के द्वारा विस्तार का अर्थ ग्रहण किया है। इसका अर्थ होगा संक्षेप और विस्तार — दोनों दृष्टियों से जानकर । हमने संग्रह का अर्थ पिण्ड अथवा संहति किया है। स्थावर जीव पिण्डरूप में ही हमारे ज्ञान के विषय बनते हैं 1 एक-एक शरीर को पृथक् पृथक् रूप में नहीं जाना जा ६. बृहद्वृत्ति पत्र ५२५ धर्माणां 'काश्यपः भगवानृषभदेवः मुखं उपायः कारणात्मकः तस्यैवादितत्प्ररूपकत्वात् । ७. सूयगडो १२ 1७४ : ८. ६. अभविंसु पुरावि भिक्खवो आएसा वि भविसु सुब्वया । एयाई गुणाई आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ।। बृहद्वृत्ति, पत्र ५२६, ५२७ । वही पत्र ५२६ आर्याणां तीर्थकृतां वचनमार्यवचनम् आगमः । १०. वही, पत्र ५२७ । ११. सुखबोधा, पत्र ३०७ । १२ वृहद्वृत्ति, पत्र ५२७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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