SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यज्ञीय ४०५ अध्ययन २५ : श्लोक ७-१६ टि० ७-१३ और सर्वकामिक। सर्वकाम्य—ऐसा भोजन जिसमें सारी १०. (श्लोक १०) अभिलषणीय वस्तुएं हों। सर्वकामिक-षड्रसों से युक्त भोजन।' यह श्लोक सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के निम्न अंश ७. विप्र...द्विज (विप्पा...दिया) से तुलनीय है: सामान्यतः 'विप्र' और 'द्विज'—ये दोनों शब्द 'ब्राह्मण' से भिम्खू धम्म किट्टमाणे-नन्नत्थ कम्मनिज्जरवाए के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। किन्तु इनके निरुक्त भिन्न-भिन्न हैं। धम्ममाइक्खेज्जा' (२१) जो व्यक्ति ब्राह्मण-जाति में उत्पन्न होते हैं उन्हें 'विप्र' कहा ११. (श्लोक ११) जाता है। यह 'जाति-वाचक' संज्ञा है। जो व्यक्ति ब्राह्मण जाति इस श्लोक के चारों चरणों में 'मुह' शब्द का प्रयोग में उत्पन्न होते हैं और योग्य वय को प्राप्त हो यज्ञोपवीत हुआ है। पहले और तीसरे चरण में प्रयुक्त 'मुह' का अर्थ धारण करते हैं-संस्कारित होते हैं, उन्हें 'द्विज' कहा जाता 'प्रधान' और दूसरे तथा चौथे चरण में उसका अर्थ 'उपाय' है। यह एक विशिष्ट संस्कार है जो कि दूसरा जन्म ग्रहण करने के सदृश माना जाता है। १२. प्रश्न का उत्तर (तस्सऽक्खेवपमोक्खं) यह भी सम्भव है कि जो वेदों के ज्ञाता होते थे, उन्हें यहां आपेक्ष का अर्थ है-प्रश्न और प्रमोक्ष का अर्थ 'विप्र' और जो यज्ञ आदि करने-कराने में निपुण होते थे, उन्हें है--उत्तर, प्रतिवचन। ना 'द्विज' कहा जाता था। वह भाव स्वयं प्रस्तुत श्लोक के प्रथम देखें-भगवती २७ का टिप्पण। ताली और द्वितीय चरण में स्पष्ट है-जे य वेयविऊ विप्पा, जन्नट्ठा य जे दिया। इस श्लोक में चौदहवें श्लोक में पूछे गए पांच प्रश्नों के ८. ज्योतिष आदि वेद के छहों अंगों को जानने वाले उत्तर दिए गए हैं। पहला प्रश्न है-वेदों में प्रधान तत्त्व क्या (जोइसंगविऊ) हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है-वेदों में प्रधान तत्त्व अग्निहोत्र शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष-ये है। अग्निहोत्र का अर्थ विजयघोष जानता था किन्तु जयघोष छ: वेदांग कहलाते हैं। इनमें शिक्षा वेद की नासिका है, कल्प उसे अग्निहोत्र का वह अर्थ समझाना चाहते थे जिसका हाथ, व्याकरण मुख, निरुक्त श्रोत्र, छन्द पैर और ज्योतिष नेत्र प्रतिपादन आरण्यक-काल में होने लगा था। आत्म-यज्ञ के हैं। इसीलिए वेद-शरीर के ये अंग कहलाते हैं। इनके द्वारा संदर्भ में जयघोष ने कहा है-"दही का सार जैसे नवनीत वेदार्थ को समझने में मूल्यवान् सहायता प्राप्त होती है। वेद के होता है वैसे ही वेदों के सार आरण्यक हैं। उनमें सत्य, तप, प्रधान प्रतिपाद्य यज्ञों से ज्योतिष का विशिष्ट सम्बन्ध है। संतोष, संयम चारित्र, आर्जव, क्षमा, धृति, श्रद्धा और अहिंसाआचार्य ज्योतिष (श्लोक ३६) में कहा गया है-“यज्ञ के यह दस प्रकार का धर्म बतलाया गया है। वही सही अर्थ में लिए वेदों का अवतरण है और काल के उपयुक्त सन्निवेश से अग्निहोत्र है।" इससे यह फलित होता है कि जैन-मुनियों की यज्ञों का सम्बन्ध है, इसलिए ज्योतिष को 'काल-विधायक-शास्त्र' दृष्टि में वेदों की अपेक्षा आरण्यकों का अधिक महत्त्व था। वेदों कहा जाता है। फलतः ज्योतिष जानने वाला ही यज्ञ का ज्ञाता को वे पशबन्ध-छाग आदि पशुओं के वध के हेतूभूत मानते है।" इसीलिए यहां ज्योतिषांग का प्रयोग किया गया है। थे। आरण्यक-काल में वैदिक-ऋषियों का झुकाव आत्म-यज्ञ ९. (श्लोक ९) की ओर हुआ, इसलिए जयघोष ने वेदों की अपेक्षा आरण्यकों यह श्लोक दशवैकालिक, अ० ५२ के २७ और २८ की विशेषता का प्रतिपादन किया। शान्त्याचार्य ने आरण्यक श्लोक के उपदेश की याद दिलाता है : तथा ब्रह्माण्डपुराणात्मक विद्या को ब्राह्मण-सम्पदा माना है।" बहु परघरे अत्थि विविहं खाइमसाइम। दूसरा प्रश्न है यज्ञ का उपाय (प्रवृत्ति-हेतु) क्या है ? न तत्थ पंडिओ कुप्पे इच्छा देज्ज परो न वा।। इसके उत्तर में कहा गया है—यज्ञ का उपाय 'यज्ञार्थी' है। इस सयणासण वत्थं वा भत्तपाणं व संजए। बात को विजयघोष भली-भांति जानता था किन्तु जयघोष ने अदेंतस्स न कुपेज्जा पच्चक्खे वि य दीसओ।। उसे यह बताया कि आत्म-यज्ञ के संदर्भ में इंद्रिय और मन बृहवृत्ति, पत्र ५२३ : सर्वाणि कामानि-अभिलषणीयवस्तृनि यस्मिन् तत् सर्वकाम्यं, यद् वा सर्वकामैनिर्वृत्तं तत् प्रयोजनं वा सर्वकामिक। २. वही, पत्र ५२३ : विप्रा जातितः, ये 'द्विजाः' संस्कारापेक्षया द्वितीयजन्मानः। ३. वैदिक साहित्य, पृ० २३३ । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२३ :अत्र य ज्योतिषस्योपादान प्राधान्यख्यापकम् । ५. वही, पत्र ५२४ । ६. बृहवृत्ति, पत्र ५२५। ७. वही, पत्र ५२८ : पशूना-छागानां बन्धो-विनाशाय नियमनं यैर्हेतुभिस्तेऽमी पशुबन्धाः, 'श्वेतं छागमालभेत वायव्यां दिशि भूतिकाम' इत्यादिवाक्योपलक्षिताः। ८. वही, पत्र ५२६ : विद्यते-ज्ञायत आभिस्तत्त्वमिति--विद्या आरण्यकब्रह्माण्डपुराणात्मिकास्ता एव ब्राह्मणसपदो, विद्या ब्राह्मणसंपदः, तात्विक ब्राह्मणानां हि निकिष्चनत्वेन विद्या एव संपद। Jain Education Intemational For Private & Personal use only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy