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________________ उत्तरज्झयणाणि ४४२ अध्ययन २८ : श्लोक १६-२७ १६. एए चेव उ भावे उवइठे जो परेण सद्दहई। छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइ ति नायव्वो।। एतान् चैव तु भावान् जो दूसरों.---छद्मस्थ या जिनके द्वारा उपदेश उपदिष्टान् यः परेण श्रद्दधाति। प्राप्त कर, इन भावों पर श्रद्धा करता है, उसे दद्मस्थेन जिनेन वा उपदेश-रुचि वाला जानना चाहिए। उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः।। २०.रागो दोसो मोहो । अण्णाणं जस्स अवगयं होइ। आणाए रोयंतो सो खलु आणारुई नाम।। रागो दोषो मोहः अज्ञानं यस्यापगतं भवति। आज्ञायां रोचमानः स खल्वाज्ञारुचिर्नाम।। जो व्यक्ति राग, द्वेष, मोह और अज्ञान" के दूर हो जाने पर वीतराग की आज्ञा२५ में रुचि रखता है, वह आज्ञा-रुचि है। २१. जो सुत्तमहिज्जंतो सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं। अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइ त्ति नायव्यो।। यः सूत्रमधीयानः श्रुतेनावगाहते तु सम्यक्त्वम्। अङ्गेन बाह्येन वा स सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः ।। जो अंग-प्रविष्ट या अंग-बाह्य सूत्रों को पढ़ता हुआ उनके द्वारा सम्यक्त्व पाता है, वह सूत्र-रुचि है। २२.एगेण अणेगाई पयाई जो पसरई उ सम्मत्तं। उदए ब्व तेल्लबिंदू सो बीयरुइ त्ति नायव्वो।। एकेनानेकानि पानी में डाले हुए तेल की बूंद की तरह जो सम्यक्त्व पदानि यत् प्रसरति तु सम्यक्चम्। (रुचि) एक पद (तत्त्व) से अनेक पदों में फैलता है, उदके इव तैलबिन्दुः उसे बीज-रुचि जानना चाहिए। स बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः ।। जिसे ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवाद आदि श्रुतज्ञान अर्थ सहित प्राप्त है, वह अभिगम-रुचि है। २३.सो होइ अभिगमरुई स भवति अभिगमरुचिः सुयनाणं जेण अत्थओ दिटूठं। श्रुतज्ञानं येन अर्थतो दृष्टम्। एक्कारस अंगाई। एकादशाङ्गानि पइण्णगं दिट्ठिवाओ य।। प्रकीर्णकानि दृष्टिवादश्च।। जिसे द्रव्यों के सव भाव, सभी प्रमाणों और सभी नय-विधियों से उपलब्ध है, वह विस्तार-रुचि है। २४.दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा। सव्वाहि नयविहीहि य वित्थाररुइ त्ति नायव्यो।। द्रव्याणां सर्वभावाः सर्वप्रमाणैर्यस्योपलब्धाः। सर्वैर्नयविधिभिश्च विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः।। २५.दंसणनाणचरित्ते तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु। जो किरियाभावरुई जो खलु किरियारुई नाम।। दर्शनज्ञानचरित्रे दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, तपोविनये सत्यसमितिगुप्तिषु।। गुप्ति आदि क्रियाओं में जिसकी वास्तविक रुचि है, यः क्रियाभावरुचिः वह क्रिया-रुचि है। स खलु क्रियारुचिर्नाम।। २६.अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो। अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु।। अनभिगृहीतकुदृष्टिः जिसमें कुदृष्टि (एकान्तवाद) की पकड़ नहीं है, उसे संक्षेपरुचिरिति भवति ज्ञातव्यः। संक्षेप-रुचि जानना चाहिए। वह जिन-प्रवचन में अविशारदः प्रवचने विशारद नहीं होता और अन्य दर्शनों का भी जानकार अनभिगृहीतश्च शेषेषु।। नहीं होता। २७.सो अत्थिकायधम्म योऽस्तिकायधर्म सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च। श्रुतधर्मं खलु चरित्रधर्मं च।। सद्दहइ जिणाभिहियं श्रद्दधाति जिनाभिहितं जो धम्मरुइ त्ति नायव्वो।।। स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः ।। जो जिन-प्ररूपित अस्तिकाय-धर्म, श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म में श्रद्धा रखता है, उसे धर्म-रुचि जानना चाहिए।२३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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