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________________ मोक्ष-मार्ग-गति ६. गइलक्खणो उ धम्मो अहम्मो ठाणलक्खणो। भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं ।। १०. वत्तणालक्खणो कालो जीवो उवओगलक्खणो। नाणेणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य।। ११. नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ।। १२. सबंधयारउज्जोओ पहा छायातवे इ वा। वण्णरसगंधफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ।। १३. एगत्तं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव य। संजोगा य विभागा य पज्जवाणं तु लक्खणं ।। १४.जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो संतेए तहिया नव।। १५. तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं। भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ।।। १६.निसग्गुवएसरुई आणारुइ सुत्तबीयरुइमेव। अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेवधम्मरुई।। १७.भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च। सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ उ निसग्गो।। १८. जो जिणदिठे भावे चउबिहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नह त्ति य निसग्गरुइ त्ति नायव्वो।। ४४१ अध्ययन २८ : श्लोक १-१८ गतिलक्षणस्तु धर्मः धर्म का लक्षण है गति, अधर्म का लक्षण है स्थिति। अधर्मः स्थानलक्षणः। आकाश सर्व द्रव्यों का भाजन है। उसका लक्षण है भाजनं सर्वद्रव्याणां अवकाश। नभोऽवगाहलक्षणम्।। वर्तनालक्षणः कालः वर्तना काल का लक्षण है। जीव का लक्षण है जीव उपयोगलक्षणः। उपयोग"। वह ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख से ज्ञानेन दर्शनेन च जाना जाता है। सुखेन च दुःखेन च।। ज्ञानं च दर्शनं चैव ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग–ये चरित्रं च तपस्तथा। जीव के लक्षण हैं। वीर्यमुपयोगश्च एतज्जीवस्य लक्षणम्।। शब्दान्धकार उद्योतः शब्द२, अन्धार", उद्योत, प्रभा, छाया", आतप, प्रभाच्छायाऽऽतप इति वा। वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श---ये पुद्गल के लक्षण हैं। वर्णरसगन्धर्पशाः पुद्गलानां तु लक्षणम्।। एकत्वं च पृथक्चं च एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभागसंख्या संस्थानमेव च। ये पर्यायों के लक्षण हैं।" संयोगाश्च विभागाश्च पर्यवाणां तु लक्षणम् ।। जीवाऽजीवाश्च बन्धश्च जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, पुण्यं पापाश्रवौ तथा। निर्जरा और मोक्ष--ये नौ तथ्य (तत्त्व) हैं।६ सम्वरो निर्जरा मोक्षः सन्येते तथ्या नव।। तथ्यानां तु भवानां इन तथ्य भावों के सद्भाव (वास्तविक अस्तित्व) के सद्भावे उपदेशनम्। निरूपण में जो अन्तःकरण से श्रद्धा करता है, उसे भावेन श्रद्दधत: सम्यक्त्व कहा गया है। सम्यक्त्वं तद् व्याहृतम् ।। निसर्गोपदेशरुचिः वह दस प्रकार का है—निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचिः सूत्रबीजरुचिरेव। आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, अभिगमविस्ताररुचिः विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि और धर्मरुचि।" क्रियासंक्षेपधर्मरुचिः।। भूतार्थेनाधिगताः जो परोपदेश के विना केवल पूर्वजन्म की स्मृति जीवाऽजीवाश्च पुण्यं पापं च। आदि" से उपजे हुए भूतार्थ (यथार्थ ज्ञान) से स्वस्मृत्याऽऽश्रवसंवरौ च जीव, अजीव, पुण्य, पाप को जानता है और जो आश्रव रोचते तु निसर्गः।। । और संवर पर श्रद्धा करता है, वह निसर्ग-रुचि है। यो जिनदृष्टान् भावान् जो जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट२० तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और चतुर्विधान् श्रद्दधाति स्वयमेव।। भाव से विशेषित पदार्थों पर स्वयं ही-“यह ऐसा एवमेव नान्यथेति च ही है अन्यथा नहीं है"-ऐसी श्रद्धा रखता है, उसे निसर्गरुचिरिति ज्ञातव्यः।। निसर्ग रुचि वाला जानना चाहिए। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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