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________________ मोक्ष मार्ग गति - २८. परमत्थसंथवो वा सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वा वि । वावन्नकुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ।। २६. नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं दंसणे उ भइयव्वं । सम्मत्तवरिताई जुगवं पुचं व सम्मतं ॥ ३०. नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।। ३१. निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिमिच्छा अमूढदिट्ठी व उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ट ।। ३२. सामाइयत्थ पढमं छेओवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीय सुहुमं तह संपरायं च ।। ३३. अकसायं अहक्खायं छउमत्थस्स जिणस्स वा एयं चयरित्तकरं चारित्तं होइ आहियं ।। ३४. तवो य दुविहो वुत्तो बाहिरब्भंतरो तहा । बाहिरो छव्विही वुत्तो एवमन्यंतरी तवी ।। ३५. नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सद्दहे । चरित्रेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई ।। ३६. खवेत्ता पुब्बकम्माई संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खप्प होणट्ठा पक्कमंति महेसिणो ।। Jain Education International -त्ति बेमि । ४४३ परमार्थसंस्तवो वा सुदृष्टपरमार्थसेवन वापि व्यापन्नदर्शनवर्जन च सम्यक्त्व श्रद्धानम् ।। नास्ति चरित्रं सम्यक्त्वविहीनं दर्शने तु भक्तव्यम् । सम्यक्त्वचरित्रे युगपत् पूर्वं वा सम्यक्त्वम् ।। तपश्यद्विविधमुक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा । बाह्यं षड्विधमुक्तं एवमाभ्यन्तरं तपः ।। ना प्रदर्शनिनो ज्ञानं अदर्शनी (असम्यक्ची) के ज्ञान (सम्यग् न नहीं ज्ञानेन विना न भवन्ति चरणगुणाः । होता, ज्ञान के बिना चारित्र गुण नहीं होते। अगुणी अगुणिनो नास्ति मोक्षः व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। अमुक्त का निर्वाण नहीं नास्ति अमोक्षस्य निर्वाणम् ।। होता । निःशकतं निष्काङ्क्षितं निर्विचिकित्सा अमूडदृष्टिश्य उपवृंहा स्थिरीकरणं वात्सल्यं प्रभावनमष्ट ।। सामायिकमत्र प्रथमं छेदोपस्थापन भवेद्र द्वितीयम्। परिहारविशुद्धिकं सूक्ष्मं तथा सम्पराय च ।। अकषायं यथाख्यातं छद्मस्थस्य जिनस्य वा । एतत् चयरिक्तकरं चारित्रं भवत्याख्यातम् ।। ज्ञानेन जानाति भावान् र्शनेन च श्रद्धत्ते । परिषेण निगृह्णाति तपसा परिशुध्यति ।। क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि संयमेन तपसा च । सर्वपुः खमाणा: प्रक्रामन्ति महर्षयः ।। अध्ययन २८ : श्लोक २८-३६ परमार्थ का परिचय, जिन्होंने परमार्थ को देखा है। उसकी सेवा, व्यापन्नदर्शनी ( सम्यक्त्व से भ्रष्ट) और कुदर्शनी व्यक्तियों का वर्जन, यह सम्यक्त्व का श्रद्धान है । - इति ब्रवीमि । सम्यक्त्व - विहीन चारित्र नहीं होता। दर्शन ( सम्यक्त्व) में चारित्र की भजना (विकल्प) है। इस प्रकार सम्यक्त्व और चारित्र के दो विकल्प बनते हैं। प्रथम विकल्प- सम्यक्त्व और चारित्र युगपत्-एक साथ होते हैं, उनका सहभाव होता है। दूसरा विकल्पवे युगपत् नहीं होते, वहां पहले सम्यक्त्व होता है २४ निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़-दृष्टि, उपबृंहण (सम्यक् दर्शन की पुष्टि), स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना — ये सम्यक्त्व के आठ अंग हैं। चारित्र पांच प्रकार के होते हैं- पहला- सामायिक, दूसरा-छोदोपस्थापनीय, तीसरा परिहार- विशुद्धि, चौथा - सूक्ष्म - सम्पराय और - पांचवां-यथाख्यात चारित्र। यह कषाय रहित होता है। वह छद्मस्थ और केवली दोनों के होता है। ये सभी चारित्र कर्म-संचय को रिक्त करते हैं, इसीलिए इन्हें चारित्र कहा जाता है। २६ तप दो प्रकार का कहा है-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप छह प्रकार का कहा है। इसी प्रकार आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है। जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से शुद्ध होता है। सर्व दुःखों से मुक्ति पाने का लक्ष्य रखने वाले महर्षि संयम और तप के द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय कर सिद्धि को प्राप्त होते हैं। For Private & Personal Use Only -ऐसा मैं कहता हूं। www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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