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________________ इषुकारीय ४४. भोगे भोच्चा वमित्ता य लहुभूयविहारिणो । आमोयमाणा गच्छति दिया कामकमा इव ।। ४५. इमे व बच्चा फंदंति मम हत्थ ऽज्जमागया । वयं च सत्ता कामेसु भविस्सामो जहा इमे ॥ ४६. सामिसं कुललं दिस्स बज्झमाणं निरामिसं । आमि सव्वमुज्झित्ता विहरिस्सामि निरामिसा ।। ४७. गिद्धोवमे उ नच्चाणं कामे संसारवणे । उरगो सुवण्णपासे व कमाणो तनुं चरे ।। ४८. नागो व्व बंधणं छित्ता अप्पणी वसहिं वए । एवं पत्थं महाराय ! उयारिति मे सुयं ॥ ४६. चइत्ता विउलं रज्जं कामभोगे य दुच्चए । निव्विसया निरामिसा निन्नेहा निष्परिग्गहा ।। ५०. सम्मं धम्मं वियाणित्ता चेच्चा कामगुणे वरे । तवं पगिज्झऽहक्खायं घोरं घोरपरक्कमा ।। ५१. एवं ले कमसो बुद्धा सव्वे धम्मपरायणा । जम्ममच्चुभउब्विग्गा दुक्खरसंतगवेसिणो ।। Jain Education International २४५ भोगान् भुक्त्वा वान्त्वा च लघुभूतविहारिणः । आमोदमाना गच्छन्ति द्विजाः कामक्रमा इव ।। इमे च बद्धाः स्पन्दन्ते मम हस्तमार्य ! आगताः । वयं च सक्ताः कामेषु भविष्यामो यथेमे ॥ सामिषं कुललं दृष्ट्वा बाध्यमानं निरामिषम् । आमिषं सर्वमुज्झित्वा विहरिष्यामि निरामिषा ।। गृध्रोपमांस्तु ज्ञात्वा कामान् संसारवर्धनान्। उरगः सुपर्णपार्श्वे इव शङ्कमानस्तनु चरेत् ।। नाग इव बन्धनं छित्त्वा आत्मनो वसतिं व्रजेत् । एतत् पथ्यं महाराज ! इषुकार ! इति मया श्रुतम् ।। त्यक्त्वा विपुलं राज्यं कामभोगांश्च दुस्त्यजान् । निर्विषयी निरामिषौ निःस्नेही निष्परिग्रहौ ।। सम्यग् धर्मं विज्ञाय त्यक्त्वा कामगुणान् वरान् । तपः प्रगृह्य यथाख्यातं घोरं घोरपराक्रमौ ।। एवं ते क्रमशो बुद्धाः सर्वे धर्मपरायणाः । जन्ममृत्युभयद्विग्नाः दुःखस्यान्तगवेषिणः ।। अध्ययन १४ : श्लोक ४४-५१ “विवेकी पुरुष भोगों को भोग कर फिर उन्हें छोड़ वायु की तरह अप्रतिबद्ध-विहार करते हैं और वे स्वेच्छा से विचरण करने वाले पक्षियों की तरह प्रसन्नतापूर्वक स्वतंत्र विहार करते हैं।" “आर्य! जो कामभोग अपने हाथों में आए हुए हैं और जिनको हमने नियंत्रित कर रखा है, वे कूद - 1 -फांद कर रहे हैं। हम कामनाओं में आसक्त बने हुए हैं किन्तु अब हम भी वैसे ही होंगे, जैसे कि अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ भृगु हुए हैं।" "जिस गीध के पास मांस होता है उस पर दूसरे पक्षी झपटते हैं और जिसके पास मांस नहीं होता उस पर नहीं झपटते—यह देख कर मैं आमिष (धन, धान्य आदि) को छोड़, निरामिष हो कर विचरूंगी।" " गीध की उपमा से काम-भोगों को संसारवर्धक जान कर मनुष्य को इनसे इसी प्रकार शंकित होकर चलना चाहिए, जिस प्रकार गरुड़ के सामने सांप शंकित होकर चलता है।" " जैसे बन्धन को तोड़ कर हाथी अपने स्थान ( विध्याटवी ) में चला जाता है, वैसे ही हमें अपने स्थान (मोक्ष) में चले जाना चाहिए। हे महाराज इषुकार ! यह पथ्य है इसे मैने ज्ञानियों से सुना है।" 3 राजा और रानी विपुल राज्य और दुस्त्यज कामभोगों को छोड़ निर्विषय* २, निरामिष, निःस्नेह और निष्परिग्रह हो गए। धर्म को सम्यक् प्रकार से जान, आकर्षक भोग-विलास को छोड़, वे तीर्थंकर के द्वारा उपदिष्ट घोर तपश्चया को स्वीकार कर संयम में घोर पराक्रम करने लगे। इस प्रकार वे सब क्रमशः बुद्ध होकर, धर्म-परायण, जन्म और मृत्यु के भय से उद्विग्न बन गए तथा दुःख के अन्त की खोज में लग गए। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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