SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि ३३४ अध्ययन २० : श्लोक २७-३५ "महाराज ! मेरी बड़ी-छोटी सगी बहनें भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकीं-यह मेरी अनाथता भगिन्यो मे महाराज! स्वका ज्येष्टकनिष्ठकाः। न च दुःखाद् विमोचयन्ति एषा ममाऽनाथता।। भार्या में महाराज! अनुरक्ताऽनुव्रता। अश्रुपूर्णाभ्यां नयानाभ्यां उरो मे परिषिंचति।। "महाराज! मुझमें अनुरक्त और पतिव्रता१६ मेरी पत्नी आंसू भरे नयनों से मेरी छाती को भिगोती रही।" “वह बाला मेरे प्रत्यक्ष और परोक्ष में अन्न, पान, स्नान"", गन्ध, माल्य और विलेपन का भोग नहीं कर रही थी।" “महाराज ! वह क्षण भर के लिए भी मुझसे दूर नहीं हो रही थी, किन्तु वह मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी-यह मेरी अनाथता है।" "तब मैंने इस प्रकार कहा-इस अनन्त संसार में बार-बार दुस्सह्य वेदना का अनुभव करना होता २७.भइणीओ मे महाराय ! सगा जेट्टकणिट्ठगा। न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया।। २८.भारिया मे महाराय ! अणुरत्ता अणुव्वया। अंसुपुण्णेहिं नयणेहि उरं मे परिसिंचई।। २६.अन्नं पाणं च ण्हाणं च गंधमल्लविलेवणं। मए नायमणायं वा सा बाला नोवभुंजई ।। ३०.खणं पि मे महाराय ! पासाओ वि न फिट्टई। न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया ।। ३१.तओ हं एवमाहंसु दुक्खमा हु पुणो पुणो। वेयणा अणुभविउं जे संसारम्मि अणंतए।। ३२.सई च जइ मुच्चेज्जा वेयणा विउला इओ। खंतो दंतो निरारंभो पव्वए अणगारियं ।। ३३.एवं च चिंतइत्ताणं पसुत्तो मि नराहिवा!। परियटेंतीए राईए वेयणा मे खयं गया ।। ३४.तओ कल्ले पभायम्मि आपुच्छित्ताण बंधवे। खंतो दंतो निरारंभो पव्वइओऽणगारियं ।। ३५.ततो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य। सव्वेसिं चेव भूयाणं तसाण थावराण य।। अन्नं पान च स्नानं च गन्धमाल्यश्लेिपनम् । मया ज्ञातमज्ञातं वा सा बाला नोपभुङ्क्ते।। क्षणमपि मे महाराज! पार्श्वतोपि न भ्रश्यति। न च दुःखाद् विमोचयति एषा ममाऽनाथता।। ततोऽहमेवमवोचम् दुःक्षमा खलु पुनः पुनः। वेदनाऽनुभवितुं 'जे' संसारेऽनन्तके।। सकृच्च यदि मुच्ये वेदनायाः विपुलाया इतः। क्षान्तो दान्तो निरारम्भः प्रव्रजेयमनगारिताम् ।। एवं च चिन्तयित्वा प्रसुप्तोऽस्मि नराधिप ! परिवर्तमानायां रात्री वेदना मे क्षयं गता।। "इस विपुल वेदना से यदि मैं एक बार ही मुक्त हो जाऊं तो क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगारवृत्ति को स्वीकार कर लूं।" "हे नराधिप ! ऐसा चिन्तन कर मैं सो गया। बीतती हुई रात्रि के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो गई।"२० “उसके पश्चात् प्रभातकाल से मैं स्वस्थ हो गया। मैं अपने बन्धु-जनों को पूछ, क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगारवृत्ति में आ गया।" ततः कल्यः प्रभाते आपृच्छ्रय बान्धवान्। क्षान्तो दान्तो निरारम्भः प्रव्रजितोऽनगारिताम्।। ततोऽहं नाथो जातः आत्मनश्च परस्य च। सर्वेषां चैव भूतानां त्रसानां स्थावराणां च।। "तब मैं अपना तथा दूसरों का तथा सभी त्रस और स्थावर जीवों का नाथ हो गया।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy