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________________ महानिर्ग्रन्थीय ३३५ अध्ययन २० : श्लोक ३६-४४ ३६.अप्पा नई वेयरणी आत्मा नदी वैतरणी "मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही कूट अप्पा मे कूडसामली। आत्मा मे कूटशाल्मली। शाल्मली२२ वृक्ष है, आत्मा ही कामदुधा धेनु है और अप्पा कामदुहा घेणू आत्मा कामदुधा धेनुः आत्मा ही नन्दन वन है।" अप्पा मे नंदणं वणं ।। आत्मा मे नन्दन वनम् ।। ३७.अप्पा कत्ता विकत्ता य आत्मा कर्ता विकर्ता च “आत्मा ही दुःख-सुख की करने वाली और उनका दुहाण य सुहाण य। दुःखानां च सुखानां च। क्षय करने वाली है। सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही अप्पा मित्तममित्तं च आत्मा मित्रममित्रं च मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु दुप्पट्ठियसुपट्ठिओ।। दुष्प्रस्थितः सुप्रस्थितः।। ३८.इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा! इयं खलु अन्याप्यनाथता नृप! “हे राजन् ! यह एक दूसरी अनाथता ही है। तमेगचित्तो निहुओ सुणेहि। तामेकचित्तो निभृतः शृणु। एकाग्र-चित्त, स्थिर-शान्त होकर तुम उसे मुझसे नियंठधम्म लहियाण वी जहा निर्ग्रन्थधर्म लब्ध्वाऽपि यथा सुनो ! जैसे कई एक व्यक्ति बहुत कायर होते हैं। वे सीयंति एगे बहुकायरा नरा।। सीदन्त्येके बहुकातरा नराः ।। निर्ग्रन्थ-धर्म को पाकर भी कष्टानुभव करते हैं निर्ग्रन्थाचार का पालन करने में शिथिल हो जाते हैं।"२३ ३६.जो पव्वइत्ताण महव्वयाई यः प्रव्रज्य महाव्रतानि "जो महाव्रतों को स्वीकार कर भलीभांति उनका सम्मं नो फासयई पमाया। सम्यक् नो स्पृशति प्रमादात्। पालन नहीं करता, अपनी आत्मा का निग्रह नहीं अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे अनिग्रहात्मा च रसेषु गृद्धः करता, रसों में मूर्च्छित होता है, वह बन्धन का न मूलओ छिंदइ बंधणं से।। न मूलतः छिनत्ति बन्धनं सः।। मूलोच्छेद नहीं कर पाता।" ४०.आउत्तया जस्स न अस्थि काइ आयुक्तता यस्य नास्ति कापि “ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उच्चार-प्रसवण, इरियाए भासाए तहेसणाए। ईर्यायां भाषायां तथैषणायाम् । की परिस्थापना में जो सावधानी नहीं बर्तता, वह आयाणनिक्खेवदुगुंछणाए आदाननिक्षेपजुगुप्सनायां उस मार्ग का अनुगमन नहीं कर सकता जिस पर न वीरजायं अणुजाइ मग्गं ।। न वीरयातमनुयाति मार्गम्।। वीर-पुरुष चले हैं।"२५ ४१.चिरं पि से मुंडरुई भवित्ता “जो व्रतों में स्थिर नहीं है, तप और नियमों से अथरव्वए तवनियमेहि भट्ठे। अस्थिरव्रतस्तपोनियमेभ्यो भ्रष्टः। प्रष्ट है, वह चिरकाल से मुण्डन में रुचि रखकर चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता चिरमव्यात्मानं क्लेशयित्वा भी चिरकाल तक आत्मा को कष्ट देकर भी संसार का न पारए होइ ह संपराए।। न पारगो भवति खलु संपराये।। पार नहीं पा सकता।" ४२.पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे 'पोल्ला' एव मुष्टिर्यथा सोऽसारः “जो पोली मुट्ठी की भांति असार है, खोटे सिक्के की अयंतिए कूडकहावणे वा। अयन्त्रितः कूटकार्षापण इव। भांति मुद्रा रहित है, काचमणि होते हुए भी वैर्य राढामणी वेरुलियप्पगासे राढामणिर्वैडूर्यप्रकाशः जैसे चमकता है, वह जानकार व्यक्तियों की दृष्टि में अमहग्घए होइ य जाणएसु।। अमहाघको भवति च ज्ञेषु।। मूल्य-हीन हो जाता है।" ४३.कुसीललिंगं इह धारइत्ता कुशीललिंगमिह धारयित्वा “जो कुशील-वेश३० और ऋषि-ध्वज (रजोहरण आदि इसिज्झयं जीविय वूहइत्ता। ऋषिध्वज जीविकां बृंहयित्वा। मुनि-चिन्हों) को धारण कर उनके द्वारा जीविका चलाता असंजए संजयलप्पमाणे असंयतः संयतं लपन् है, असंयत होते हुए भी अपने आपको संयत कहता विणिघायमागच्छइ से चिरं पि। विनिघातमागच्छति स चिरमपि।। है, वह चिरकाल तक विनाश को प्राप्त होता है।" ४४.विसं तु पीयं जह कालकूडं विषं तु पीतं यथा कालकूटं __पिया हुआ काल-कूट विष, अविथि से पकड़ा हुआ हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं। हन्ति शस्त्रं यथा कुगृहीतम्। शस्त्र और नियन्त्रण में नहीं लाया हुआ वेताल जैसे एसे व धम्मो विसओववन्नो एष एवं धर्मो विषयोपपन्नः विनाशकारी होता है", वैसे ही यह विषयों से युक्त हणाइ वेयाल इवाविवन्नो।। हन्ति वेताल इवाविपन्नः।। धर्म भी विनाशकारी होता है।" Jain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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