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समर्पण
॥१॥
पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं। सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाण पुव्वं ।।
जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से।।
॥२॥
विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीय मच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाण पुव्वं ।।
जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत। श्रुत-सद्ध्यान लीन चिर चिंतन, जयाचार्य को विमल भाव से।।
॥३॥
पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाण पुव्वं ।।
जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से।।
विनयावनत आचार्य तुलसी
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