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________________ परीषह-प्रविभक्ति ४७ अध्ययन २ : श्लोक २१,२२ टि० ३६-३८ आगम के इस वचन का स्मरण करे—'पडिमं पडिवज्जिया पीछे-पीछे आ रहे थे। जहां मुनि कायोत्सर्ग में स्थित थे, वहां से मसाणे, णो भायए भयभेरवाई दिस्स। साथ ही साथ वह वहां दो मार्ग दो गांवों की ओर जा रहे थे। वे खोजी व्यक्ति वहां रुके। साधनारत अन्यान्य साथकों को भी न डराए। ऐसी आवाजें न मुनि से पूछा कि चोर किस ओर गए हैं? मुनि मौन थे। खोजी करे कि दूसरे डर जाएं या ऐसे हावभाव न करे कि वहां भय व्यक्तियों ने पुनः-पुनः पूछा। मुनि ने मौन भंग नहीं किया। वे का वातावरण खड़ा हो जाए।' कुपित हुए और उन्होंने मुनि के सिर पर मिट्टी की पाल ३६. (श्लोक २०,२१) बांधकर उसको दहकते अंगारों से भर दिया। वे फिर वहां से चल ये दो श्लोक निषद्या परीषह से संबंधित हैं। चूर्णिकार ने दिए। 'णिसीहिया' और 'ठाणं' को एकार्थक माना है और इसका अर्थ मुनि को असह्य विकराल वेदना हो रही थी। पर वे समता निषीदन-बैठना किया है। वृत्ति में इसका अर्थ श्मशानादि के अथाह सागर में उन्मज्जन-निमज्जन करने लगे। वे गुनगुनाने स्वाध्याय भूमि किया है। प्राचीनकाल में मुनि स्वाध्याय के लगेलिए एकान्त स्थान में जाते थे। उसको निषीधिका या निषद्या सह कलेवर! खेदमचिन्तयन्, स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा। कहते थे। बहुतरं च सहिष्यसि जीव है! परवशो न च तत्र गुणोऽस्ति ते।। खारवेल के शिलालेख में 'काय निसीदिका' और 'अर्हत् शरीर! इस विपुल कष्ट को तू यह सोचकर समभाव से निसीदिका' का पाठ मिलता है। सहन कर कि कष्ट सहने की यह स्वतंत्रता अन्यत्र दुर्लभ है। इस प्रकार 'निसीदिया' और निसीहिया'—ये दो प्रकार के मनुष्य जीवन के अतिरिक्त ऐसी स्ववशता पुनः प्राप्त होना पाठ मिलते हैं। इनमें खारवेल के शिलालेख के पाठ बहुत प्राचीन कठिन है। परवशता में तूने अनेक भयंकर कष्ट सहे हैं। यह हैं। प्राचीन लिपि में 'द' और 'ह' का अंकन बहुत समान रहा तेरी कोई विशेषता नहीं है। विशेषता तब होती है जब स्ववशता है। इस आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि 'निसीदिया' में भी भयंकर कष्टों को समभाव से सहा जाए।' का 'द' 'हकार' में परिवर्तित हो गया और 'निसीहिया' पाठ मुनि के परिणामों की श्रेणी विशुद्धतम होती गई और वे प्रचलित हो गया। सभी कष्टों से सदा-सदा के लिए मुक्त हो गए। _ 'निसीदिया' का अर्थ है-निषद्या। यह स्वभाविक प्रयोग ३७. उत्कृष्ट या निकृष्ट उपाश्रय को पाकर (उच्चावयाहिं है। 'निसीहिया' का अर्थ निषीधिका, नैषेधिकी या निशीथिका किया सेज्जाहिं) जाता है। यह अर्थ मौलिक प्रतीत नहीं होता। उच्च और अवच-ये दो शब्द हैं। उच्च का अर्थ हैनिषद्या का अर्थ है--निर्वाणभूमि, स्वाध्यायभूमि या वे दुमंजिले मकान जो लिपे-पुते हुए हैं अथवा जो शीत, आतप समाधिस्थल। आदि का निवारण करने में सक्षम हैं, सभी ऋतुओं में सुखदायी निषद्या परीषह ____ हस्तिनापुर नगर। कुरुदत्त नाम का श्रेष्टिपुत्र । उसने एक अवच का अर्थ है-जमीन से सटे हुए मकान, खंडहर आचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। आचार्य बहुश्रुत थे। या जो शीत और आतप से रक्षा करने में असमर्थ ।' सकी पात्रता की परीक्षा कर उसे अनेक आगमों की शय्या का अर्थ है-वसति, गृह। वाचना दी। वह विनय की प्रतिपत्ति से ज्ञान अर्जित कर कुछ ही ३८. मर्यादा का अतिक्रमण न करे (नाइवेलं विहन्नेज्जा) वर्षों में बहुश्रुत मुनि बन गया। आचार्य की अनुज्ञा प्राप्त कर वह वेला शब्द के दो अर्थ हैं-समय और मर्यादा। एक बार एकलविहार प्रतिमा की प्रतिज्ञा कर साकेत नगर की 'हन्' धातु के दो अर्थ हैं--हिंसा और गति। यहां यह ओर चला। नगर के समीप आते-आते दिन का अंतिम प्रहर- गति अर्थ में प्रयुक्त है। चतुर्थ प्रहर का काल आ गया। उसने वहीं पैर रोक दिए। वह 'नाइवेलं विहन्नेज्जा' पद के दो अर्थ हैंस्थान था नगर का श्मशान। इधर-उधर शव जल रहे थे। वह (१) मुनि शीत, आतप आदि से प्रताड़ित होकर वहीं कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। स्वाध्यायभूमि का अतिक्रमण न करे, उसे छोड़कर अन्यत्र न निकट के एक गांव से कुछ चोर गायों को चुराकर उसी जाए। (२) मुनि उच्च या अवच स्थान को प्राप्त कर अपनी रास्ते से निकले थे। चोरी का पता लगाने वाले कुछ लोग उनके १. बहवृत्ति, पत्र १०६ । (ख) सुखबोधा, पत्र १७ : नैषेधिकी--श्मशानादिका स्वाध्यायभूमिः। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६७ : णिसीहियत्ति वा ठाणति वा एगटूट, तं तु ४. सुखबोधा, पत्र ३३।। तस्स साधोः कुत्र स्थाने स्यात? णिसीहियमित्यर्थः। ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६८। ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ८३ : श्मशानादिका स्वाध्यायादिभूमिः निषोति (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ११०। यावत्। (२) Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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