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________________ केशि-गौतमीय अध्ययन २३ : श्लोक २८-३६ २८.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा !।। ३७५ साधुः गौतम ! राज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मे तं मां कथय गौतम!! गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा। तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। २६.अचेलगो य जो धम्मो जो इमो संतरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा।। अचेलकश्च यो धर्मः योऽयं सान्तरोत्तरः। देशितो वर्धमानेन पावेन च महायशसा। महामुनि वर्धमान ने जो आचार-धर्म की व्यवस्था की है वह अचेलक है और महान यशस्वी पार्श्व ने जो यह आचार-धर्म की व्यवस्था की है वह सान्तर (अन्तर् वस्त्र) तथा उत्तर (उत्तरीय वस्त्र) है। ३०.एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं?। लिंगे दुविहे मेहावि! कहं विप्पच्चओ न ते? || एककार्य-प्रपन्नयोः विशेषे किन्नु कारणम् ?। लिङ्गे द्विविधे मेधाविन् ! कथं विप्रत्ययो न ते?" एक ही उद्देश्य के लिए हम चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? मेधाविन् ! वेष के इन प्रकारों में तुम्हें संदेह कैसे नहीं होता? ३१. केसिमेवं बुवाणं तु गोयमो इणमब्बवी। विण्णाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं ।। केशिनमेवं बुवाणं तु गौतम इदमब्रवीत्। विज्ञानेन समागम्य धर्मसाधनमिप्सितम्।। केशी के कहते-कहते ही गौतम ने इस प्रकार कहा-विज्ञान से यथोचित जान कर ही धर्म के साधनों-उपकरणों की अनुमति दी गई है। ३२.पच्चयत्थं च लोगस्स नाणाविहविगप्पणं। जत्तत्थं गुहणत्थं च लोगे लिंगप्पोयणं ।। प्रत्ययार्थं च लोकस्य नानाविधविकल्पनम्। यात्रार्थ ग्रहणार्थं च लोके लिङ्गप्रयोजनम् ।। लोगों को यह प्रतीति हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। जीवन-यात्रा को निभाना और 'मैं साधु हूं', ऐसा ध्यान आते रहना२०–वेष-धारण के इस लोक में ये प्रयोजन हैं। ३३. अह भवे पइण्णा उ मोक्खसब्भूयसाहणे। नाणं च दंसणं चेव चरित्तं चेव निच्छए।। अथ भवेत् प्रतिज्ञा तु मोक्षसभूतसाधने। ज्ञानं च दर्शनं चैव चारित्रं चैव निश्चये।। यदि मोक्ष के वास्तविक साधन की प्रतिज्ञा हो तो निश्चय-दृष्ट्रि में उसके साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं।२१ ३४. साहु गोयम! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा !|| साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!11 गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा। तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। ३५.अणेगाणं सहस्साणं मज्झे चिट्ठसि गोयमा ! ते य ते अहिगच्छंति कहं ते निज्जिया तुमे ?!! अनेकेषां सहसाणां मध्ये तिष्ठसि गौतम! ते य त्वामभिगच्छन्ति कथं ते निर्जितास्त्वया?|| गौतम! तुम हजारों-हजारों शत्रुओं (कषायजनित वृत्तियों) के बीच खड़े हो। वे तुम्हें जीतने को तुम्हारे सामने आ रहे हैं। तुमने उन्हें कैसे पराजित किया ? ३६.एगे जिए जिया पंच पंच जिए जिया दस। दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामहं।। एकस्मिन् जिते जिताः पंच पंचसु जितेषु जिता दश। दशधा तु जित्वा सर्वशत्रून् जयाम्यहम् ।। एक (चित्त) को जीत लेने पर पांच जीते गए। पांच को जीत लेने पर दस जीते गए। दसों को जीत कर मैं सब शत्रुओं को जीत लेता हूं। Jain Education Intemational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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