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________________ उत्तरज्झयणाणि १८. केसी कुमारसमणे गोयमे व महायसे । उभओ निसण्णा सोहति चंदसूरसमप्पभा ।। १६. समागया बहू तत्थ पासंडा कोउगामिगा । गिहत्थाणं अणेगाओ साहस्सीओ समागया ।। २०. देवादाणवगंधव्वा जक्खरक्खसकिन्नरा | अदिस्साणं च भूयाणं आसी तत्थ समागमो ।। २१. पुच्छामि ते महाभाग ! केसी गोयममब्बवी । तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ।। २२. पुच्छ भन्ते ! जहिच्छं ते केसिं गोयममब्बवी । तओ केसी अणुन्नाए गोयमं इणमब्बवी ।। २३. चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ वज्रमाणेण पासेण व महामुनी ।। २४. एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं ? । धम्मे दुविहे मेहावि कहं विप्पच्चओ न ते ? ।। २५. तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी । पण्णा समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छयं । । २६. पुरिमा उज्जुजडा व वंकजडा य पच्छिमा । मन्त्रिमा उज्जुपण्णा य तेण धम्मे दुहा कए ।। २७. पुरिमाणं दुब्बिसोझो उ चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पे मज्झिमगाणं तु सुविसोज्यो सुपालओ ।। Jain Education International ३७४ केशी कुमारश्रमणः गौतमश्च महायशाः । उभौ निषण्णौ शोभेते चन्द्रसुरसमप्रभी ।। समागता बहवस्तत्र पाषण्डाः कौतुकामृगाः । गृहस्थानामनेकाः साहस्रयः समागताः ।। देवदानवगन्धर्वाः यक्षराक्षसकिन्नराः । अदृश्यनां च भूतानाम् आसीत् तत्र समागमः ।। पृच्छामि त्वां महाभाग ! केशी गौतममब्रवीत् । ततः केशिनं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत् ।। पृच्छ भदन्त ! यथेच्छं ते केशिनं गौतमो ऽब्रवीत् । ततः केश्यनुज्ञातः गौतममिदमत्रवीत् ।। चातुर्याश्च यो धर्मः योऽयं पंचशिक्षितः । देशितो वर्धमानेन पाश्चैन व महामुनिना ।। एककार्यप्रपन्नयोः विशेषे किन्तु कारणम् ? । धर्मे द्विविधे मेधाविन् ! कथं विप्रत्ययों न ते ? || ततः केशिनं वुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्। प्रज्ञा समीक्षते धर्म तत्त्वं तत्चविनिश्चयम् ।। पूर्व ऋजुजवास्तु वक्रजडाश्च पश्चिमाः । मध्यमा ऋजुप्राज्ञाश्च तेन धर्मो द्विधा कृतः ।। पूर्वेषां दुर्विशोध्यस्तु चरमाणां दुरनुपालकः । कल्पो मध्यमकानां तु सुविशोध्यः सुपालकः ॥ अध्ययन २३ : श्लोक १८-२७ चन्द्र और सूर्य के समान शोभा वाले कुमार- श्रमण केशी और महान् यशस्वी गौतम—दोनों बैठे हुए शोभित हो रहे थे। १५ वहां कुतूहल को ढूंढने वाले दूसरे दूसरे सम्प्रदायों के अनेक साधु आए और हजारों-हजारों गृहस्थ आए। देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर और अदृश्य भूतों का वहां मेला - सा हो गया है। हे महाभाग ! मैं तुम्हें पूछता हूं—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम ने इस प्रकार कहा भंते! जैसी इच्छा हो वैसा पूछो। केशी ने प्रश्न करने की अनुज्ञा पाकर गौतम से इस प्रकार कहा " - जो चातुर्याम धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और यह जो पंचशिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्धमान ने किया है। एक ही उद्देश्य के लिए हम चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? मेधाविन् ! धर्म के इन दो प्रकारों में तुम्हें सन्देह कैसे नहीं होता ? केशी के कहते-कहते ही गौतम ने इस प्रकार कहा— धर्म-तत्त्व और तत्त्व-विनिश्चय की समीक्षा प्रज्ञा से होती है । पहले तीर्थंकर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं। अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं। बीच के तीर्थङ्करों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। चरमवर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार का पालन कठिन है। मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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