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________________ केशि-गौतमीय ३७३ अध्ययन २३ : श्लोक ६-१७ ६. केसी कुमारसमणे गोयमे य महायसे। उभओ वि तत्थ विहरिंसु उल्लीणा सुसमाहिया।। केशी कुमारश्रमणः गौतमश्च महायशाः। उभावपि तत्र व्यहाष्टम् आलीनौ सुसमाहितौ।। कुमार-श्रमण केशी और महान यशस्वी गौतमदोनों वहां विहार कर रहे थे। वे आत्मलीन और मन की समाधि से सम्पन्न थे। उभयोः शिष्यसयानां संयतानां तपस्विनाम्। तत्र चिन्ता समुत्पन्ना गुणवतां त्रायिणाम् ।। उन दोनों का शिष्य-समूह, जो संयत, तपस्वी, गुणवान् और त्रायी था, के मन में एक तर्क उत्पन्न हुआ। १०. उभओ सीससंघाणं संजयाणं तवस्सिणं। तत्थ चिंता समुप्पन्ना गुणवंताण ताइणं ।। ११. केरिसो वा इमो धम्मो? इमो धम्मो व केरिसो? | आयारधम्मपणिही इमा वा सा व केरिसी?|| कीदृशो वायं धर्मः? अयं धर्मो वा कीदृशः?/ आचारधर्मप्रणिधिः अयं वा स वा कीदृशः?।। यह हमारा धर्म कैसा है? और यह धर्म कैसा है? आचार-धर्म की व्यवस्था यह हमारी कैसी है? और वह उनकी कैसी है? १२. चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुणी।। चातुर्यामश्च यो धर्मः योऽयं पंचशिक्षितः। देशितो वर्धमानेन पावेन च महामुनिना।। जो चातुर्याम-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और यह जो पंच-शिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्धमान ने किया है।' १३. अचेलगो य जो धम्मो जो इमो संतरुत्तरो। एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं? ।। अचेलकश्च यो धर्मः योऽयं सान्तरोत्तरः। एककार्यप्रपन्नयोः विशेषे किन्नु कारणम् ?।। महामुनि वर्धमान ने जो आचार-धर्म की व्यवस्था की है वह अचेलक है और महामुनि पार्श्व ने जो यह आचार-धर्म की व्यवस्था की है, वह सान्तर (अन्तर् वस्त्र) तथा उत्तर (उत्तरीय वस्त्र) है।" जवकि हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? १४.अह ते तत्थ सीसाणं विण्णाय पवितक्कियं । समागमे कयमई उभओ केसिगोयमा। अथ तौ तत्र शिष्याणां विज्ञाय प्रवितर्कितम्। समागमे कृतमती उभौ केशिगौतमौ।। उन दोनों--केशी और गौतम ने अपने-अपने शिष्यों की वितर्कणा को जान कर परस्पर मिलने का विचार किया। १५. गोयमे पडिरूवण्णू सीससंघसमाउले। जेठं कुलमवेक्खंतो तिंदुयं वणमागओ।। गौतमः प्रतिरूपज्ञः शिष्यसङ्घसमाकुलः। ज्येष्ठ कुलमपेक्षमाणः तिन्दुक वनमागतः।। गौतम ने विनय की मर्यादा का औचित्य देखा।१२ केशी का कुल ज्येष्ठ था, इसलिए गौतम शिष्य-संघ को साथ लेकर तिंदुक वन में चले आए। १६.केसी कुमारसमणे गोयमं दिस्समागयं। पडिरूवं पडिवत्तिं सम्मं संपडिवज्जई।। केशी कुमार श्रमणः गौतमं दृष्ट्वागतम्। प्रतिरूपां प्रतिपत्तिम सम्यक् संप्रतिपद्यते।। कुमार-श्रमण केशी ने गौतम को आए देख कर सम्यक् प्रकार से उनका उपयुक्त आदर किया।" १७.पलालं फासयं तत्थ पंचमं कुसतणाणि य। गोयमस्स निसेज्जाए खिप्पं संपणामए।। पलालं स्पभुकं तत्र पंचमं कुशतृणानि च। गौतमस्य निषद्यायै क्षिप्रं समर्पयति।। उन्होंने तुरन्त ही गौतम को बैठने के लिए प्रासुक पलाल (चार प्रकार के अनाजों के डंठल) और पांचवी कुश नाम की घास" दी। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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