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________________ उत्तरज्झय गाणि ३७६ अध्ययन २३ : श्लोक ३७-४६ शुत्र कौन कहलाता है?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले एक न जीती हुई आत्मा (चित्त) शत्रु है। कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। मुनि ! मैं उन्हें यथाज्ञात उपाय से२२ जीतकर विहार कर रहा हूं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। इस संसार में बहुत जीव पाश से बन्धे हुए दीख रहे हैं। मुने ! तुम पाश से मुक्त और पवन की तरह प्रतिबंध-रहित होकर कैसे विहार कर रहे हो ?२३ मुने! इस पाशों को सर्वथा काट कर, उपायों से" विनष्ट कर, मैं पाश-मुक्त और प्रतिबन्ध-रहित होकर विहार करता हूं। ३७.सत्तू य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी। तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ३८.एगप्पा अजिए सत्तू कसाया इंदियाणि य। ते जिणित्तु जहानायं विहरामि अहं मुणी !।। ३६.साहु गोयम! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ।। ४०.दीसंति बहवे लोए पासबद्धा सरीरिणो। मुक्कपासो लहुन्भूओ कहं तं विहरसी? मुणी!।। ४१.ते पासे सव्वसो छित्ता निहंतूण उवायओ। मुक्कपासो लहुन्भूओ विहारामि अहं मुणी !।। ४२.पासा य इइ के वुत्ता? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ४३. रागद्दोसादओ तिव्वा नेहपासा भयंकरा। ते छिंदित्तु जहानायं विहरामि जहक्कम।। ४४.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ।। ४५.अंतोहिययसंभूया लया चिट्ठइ गोयमा ! फलेइ विसभक्खीणि सा उ उद्धरिया कहं ? || ४६.तं लयं सव्वसो छित्ता उद्धरित्ता समूलिय। विहरामि जहानायं मुक्को मि विसभक्खणं ।। शत्रवश्च इति के उक्ताः? केशी गौतममब्रवीत्। ततः केशिनं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्।। एक आत्माऽजितः शत्रुः कषाया इन्द्रियाणि च। तान् जित्वा यथाज्ञातं विहराम्यहं मुने!" साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो ते संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!11 दुश्यन्ते बहवो लोके पाशबद्धाः शरीरिणः। मुक्तपाशो लघुभूतः कथं त्वं विहरसि? मुने!।। तान् पाशान् सर्वशश्छित्त्वा निहत्योपायतः। मुक्तपाशो लघुभूतः विहराम्यहं मुने!।। पाशाश्चेति के उक्ताः? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत् ।। रागद्वेषादयस्तीवाः स्नेपाशा भयङ्कराः। तान् छित्त्वा यथाज्ञातं विहरामि यथाक्रमम् ।। साधुः गौतम! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!" अन्तर्हदयसंभूता लता तिष्ठति गौतम! फलति विषभक्ष्याणि सा तूद्धृता कथम् ?|| तां लतां सर्वशशिछत्त्वा उद्धृत्य समूलिकाम्। विहरामि यथाज्ञातं मुक्तोऽस्मि विषभक्षणात्।। पाश किसे कहा गया है ?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले प्रगाढ़ राग-द्वेष और स्नेह भयंकर पाश हैं। मैं उन्हें यथाज्ञात उपाय के अनुसार छिन्न कर मुनि-आचार के साथ विहरण करता हूं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। गौतम ! अन्तर् हृदय (मन) में उत्पन्न जो लता है जिसके विष-तुल्य५ फल लगते हैं, उसे तुमने कैसे उखाड़ा? उस लता को यथाज्ञात उपाय के अनुसार सर्वथा छिन्न कर, जड़ से उखाड़ कर विहरण करता हूं, इसलिए मैं विष-फल के खाने से मुक्त हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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