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________________ केशि-गौतमीय ३७७ अध्ययन २३ :श्लोक ४७-५६ लता किसे कहा गया है ?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले भव-तृष्णा को लता कहा गया है। वह भयंकर है और उसमें भयंकर फलों का परिपाक होता है। महामुने ! मैं उसे यथाज्ञात उपाय के अनुसार उखाड़ कर विहरण करता हूं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा। तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। गौतम ! घोर-अग्नियां प्रज्वलित होती रही हैं जो शरीर में रहती हुई मनुष्य को जला रही हैं। उन्हें तुमने कैसे बुझाया ? महामेघ से उत्पन्न निर्झर से सब जलों में उत्तम जल२६ लेकर मैं उन्हें सींचता रहता हूं। वे सींची हुई अग्नियां मुझे नहीं जलातीं। ४७.लया य इइ का वुत्ता ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ४८.भवतण्हा लया वुत्ता भीमा भीमफलोदया। तमुद्धरित्तु जहानायं विहरामि महामुणी! ।। ४६.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ।। ५०.संपज्जलिया घोरा अग्गी चिट्ठइ गोयमा !। जे डहति सरीरत्था कहं विज्झाविया तुमे ? || ५१. महामेहप्पसूयाओ गिज्झ वारि जलुत्तमं । सिंचामि सययं देह सित्ता नो व डहति मे।। ५२.अग्गी य इइ के वुत्ता केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ५३. कसाया अग्गिणो वुत्ता सुयसीलतवो जलं। सुयधाराभिहया संता भिन्ना हु न डहति मे।। ५४.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ।।। ५५.अयं साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावई। जंसि गोयम! आरूढो कहं तेण न हीरसि? || ५६.पधावंतं निगिण्हामि सुयरस्सीसमाहियं। न मे गच्छइ उम्मग्गं मग्गं च पडिवज्जई।। लता च इति का उक्ता? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्।। भवतृष्णा लता उक्ता भीमा भीमफलोदया। तामुद्धृत्य यथाज्ञातं विहरामि महामुने!" साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!" संप्रज्वलिता घोराः अग्नयस्तिष्ठन्ति गौतम!। ये दहन्ति शरीरस्थाः कथं विध्यापितास्त्वया ?।। महामेघप्रसूतात् गृहीत्वा वारि जलोत्तमम् । सिंचामि सततं देह सिक्ता नो वा दहन्ति माम् ।। अग्नयश्चेति के उक्ताः? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत् ।। कषाया अग्नय उक्ताः श्रुतशीलतपो जलम्। श्रुतधाराभिहताः सन्तः भिन्ना 'हु' न दहन्ति माम् ।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!। अयं साहसिको भीमः दुष्टाश्वः परिधावति। यस्मिन् गौतम! आरूढः कथं तेन नहियसे?11 प्रधावन्तं निगृहणामि श्रुतरश्मिसमाहितम्। न मे गच्छत्युन्मार्ग मार्ग च प्रतिपद्यते।। अग्नि किन्हें कहा गया है?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रुत, शील और तप यह जल है। श्रुत की धारा से आहत किए जाने पर निस्तेज बनी हुई वे अग्नियां मुझे नहीं जलातीं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। यह साहसिक२५, भयंकर, दुष्ट-अश्व दौड़ रहा है। गौतम! तुम उस पर चढ़े हुए हो। वह तुम्हें उन्मार्ग में कैसे नहीं ले जाता? मैंने इसे श्रुत की लगाम से बांध लिया है। यह जब उन्मार्ग की ओर दौड़ता है तब मैं इस पर रोक लगा देता है। इसलिए मेरा अश्व उन्मार्ग को नहीं जाता, मार्ग में ही चलता है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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