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________________ उत्तरज्झयणाणि ३७८ अध्ययन २३ : श्लोक ५७-६६ अश्व किसे कहा गया है?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले यह जो साहसिक, भयंकर, दुष्ट-अश्व दौड़ रहा है, वह मन है। उसे मैं भलीभांति अपने अधीन रखता हूँ। धर्म-शिक्षा के द्वारा वह उत्तम-जाति का अश्व हो गया है। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। लोक में कुमार्ग बहुत हैं। उन पर चलने वाले लोग भटक जाते हैं। गौतम! मार्ग में चलते हुए तुम कैसे नहीं भटकते? जो मार्ग से चलते हैं और जो उन्मार्ग से चलते हैं, वे सब मुझे ज्ञात हैं। मुने! इसीलिए मैं नहीं भटक रहा हूं। ५७.अस्से य इइ के वुत्ते? । केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ५८.मणो साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावई। तं सम्मं निगिण्हामि धम्मसिक्खाए कंथगं ।। ५६.साहु गोयम! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मझं तं मे कहसु गोयमा !।। ६०.कुप्पहा बहवो लोए जेहिं नासंति जंतवो। अद्धाणे कह वट्टते तं न नस्ससि ? गोयमा !।। ६१.जे य मग्गेण गच्छंति जे य उम्मग्गपट्ठिया। ते सव्वे विइया मज्झं तो न नस्सामहं मुणी!।। ६२.मग्गे य इइ के वुत्ते? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ६३.कुप्पवयणपासंडी सब्वे उम्मग्गपट्ठिया। सम्मग्गं तु जिणक्खायं एस मग्गे हि उत्तमे ।। ६४.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा !।। ६५.महाउदगवेगेणं वुज्झमाणाण पाणिणं। सरणं गई पइट्ठा य दीवं कं मन्नसी? मुणी !।। ६६.अत्थि एगो महादीवो वारिमज्झे महालओ। महाउदगवेगस्स गई तत्थ न विज्जई।। अश्वश्चेति क उक्त? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं बुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्।। मनः साहसिको भीमः दुष्टाश्वः परिधावति। तत् सम्यक् निगृह्णामि धर्मशिक्षया कन्थकम् ।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!" कुपथा बहवो लोके यैर्नश्यन्ति जन्तवः। अध्वनि कथं वर्तमानः त्वं न नश्यसि ? गौतम!। ये च मार्गेण गच्छन्ति ये योन्मार्गप्रस्थिताः। ते सर्वे विदिता मया ततो न नश्याम्यहं मुने!।। मार्गश्चेति क उक्तः? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्।। कुप्रवचनपाषण्डिनः सर्वे उन्मार्गप्रस्थिताः। सन्मार्गस्तु जिनाख्यातः एष मार्गो हि उत्तमः ।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो में संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!" महोदकवेगेन उह्यमानानां प्राणिनाम् । शरणं गतिं प्रतिष्ठां च द्वीपं कं मन्यसे? मुने!|| अस्त्येको महाद्वीपः वारिमध्ये महान्। महोदकवेगस्य गतिस्तत्र न विद्यते।। मार्ग किसे कहा गया है?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले जो कुप्रवचन के दार्शनिक हैं", वे सब उन्मार्ग की ओर चले जा रहे हैं। जो राग-द्वेष को जीतने वाले जिन ने कहा है, वह सन्मार्ग है, क्योंकि यह सबसे उत्तम मार्ग है। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। मुने ! महान् जल के वेग से बहते हुए जीवों के लिए तुम शरण, गति, प्रतिष्ठा और द्वीप किसे मानते हैं। जल के मध्य में एक लम्बा-चौड़ा महाद्वीप है। वहां महान् जल के बेग की गति नहीं है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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