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________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन १६:श्लोक २७,२८टि० १७, १५ १७. दतौन जितना वस्तु-खंड भी (दंतसोहणमाइस्स) करने पर भी उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। अन्त में वही वृत्तिकार ने 'माइस्स' पद में मकार को अलाक्षणिक हुआ जो होना था। चतुर्मास बिताने के लिए वह कोशा के यहां माना है तथा 'आइ' का संस्कृत रूप 'आदि' किया है। अर्थ की पहुंच गया। दृष्टि से 'मात्र' शब्द अधिक उपयुक्त है। 'मायस्स'-इसका कुछ दिन बीते। इन्द्रिय विषयों की सुलभता। मनोज्ञ उच्चारण 'माइस्स' भी हो सकता है। यकार का इकार में शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ रस आदि पांचों विषयों ने अपना परिवर्तन होना सहजगम्य है। इसका संस्कत रूपान्तरण होगा- प्रभाव डाला और उसकी कामवृत्ति जागृत हो गई। अब वह दन्तशोधनमात्रस्य। कोशा का सहवास पाने के लिए आतुर था। अवसर देखकर १८. (श्लोक २८) एक दिन उसने अपनी भावना को कोशा के सामने रख दिया। प्रस्तुत श्लोक में ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार करना अति कोशा तो पहले से ही संभली हुई थी। वह नहीं चाहती थी कि दुष्कर बतलाया गया है। कामभोगों के रस को जानने वालों के कोई मुनि उसके कारण संयम-भ्रष्ट बने। मुनि को सन्मार्ग पर लिए अब्रह्मचर्य से विरत होना कितना दुष्कर है. इस प्रसंग में लाने के लिए उसने एक उपाय सोचा। उसने मनि से कहामुनि स्थूलभद्र जैसा कोई विरल ही उदाहरण मिलता है यदि आप मुझे पाना चाहते हैं तो आपको मेरी एक शर्त पूरी चतुर्मास प्रारम्भ होने को था। स्थूलिभद्र सहित चार मुनि करनी होगी। नेपाल से रत्नकम्बल को लाना होगा। काम-भावना आचार्य संभूतविजय के पास आए। सबने गुरु-चरणों में की अभीप्सा ने मुनि को नेपाल जाने के लिए विवश कर दिया। का अपना-अपना निवेदन प्रस्तुत किया। एक ने कहा-गुरुदेव ! मैं बरसात का मौसम। मार्गगत सैकड़ों कठिनाइयां और चतुर्मास सिंह की गुफा में अपना चतुर्मास बिताना चाहता हूं। दूसरे ने के बीच बिहार। जैसे-तैसे अनेक कष्टों को सहकर मुनि नेपाल सांप की बांबी पर साधना करने की इच्छा प्रगट की। तीसरे ने पहुंचा और रत्नकम्बल लेकर पुनः आ गया। भीतर ही भीतर पनघट की चाट पर और चौथे ने कोशा वेश्या की चित्रशाला में वह बड़ा प्रसन्न हो रहा था कि आज उसकी मनोभावना सफल रहने की अनुमति चाही। गुरु ने उन्हें स्वीकृति दे दी। होगी। मुनि ने रत्नकम्बल कोशा को दी किन्तु कोशा ने मुनि चार मास बीते। सभी निर्विघ्न साधना सम्पन्न कर का देखते-देखते कीचड़ से सने हुए पैरों को रत्नकम्बल आचार्य के पास आए। आचार्य ने पहले मुनि को 'दुष्कर कार्य से पोंछा और उसे नाली में फेंक दिया। इस घटना को मुनि करने वाले' के सम्बोधन से सम्बोधित किया। उसी प्रकार । विस्फारित नेत्रों से देखता रह गया। उसके मन पर एक गहरी दूसरे, तीसरे मुनि के लिए भी यही सम्बोधन प्रयुक्त किया। प्रातक्रिया हुई कि प्रतिक्रिया हुई कि कितने कष्टों को सहकर मैं इसे यहां लाया किन्तु स्थूलिभद्र को देखते ही आचार्य ने उन्हें दुष्कार-दुष्कर, और उसका यह दुरुपयोग ! बात कुछ समझ में नहीं आई। महादुष्कर कहकर संबोधित किया। तीनों मुनियों को गुरु का अन्त में उसने कोशा से पूछ ही लिया-भद्रे ! तुमने यह क्या यह कथन बहुत अखरा। वे अपनी बात कहें उससे पूर्व ही किया? इस बहुमूल्य कम्बल का क्या यही उपयोग था? कोशा आचार्य ने उनको समाहित करते हुए कहा-शिष्यो ! स्थूलिभद्र ने व्यंग्य की भाषा में कहा—संयम रत्न से बढ़ कर रत्नकम्बल कोशा वेश्या की चित्रशाला में रहा। सब प्रकार से सुविधाजनक कौन सी अमूल्य वस्तु है ? आपने तो तुच्छ काम-भोगों के लिए और चिरपरिचित स्थान, अनुकूल वातावरण, प्रतिदिन षड्रस संयम रत्न जैसे अनमोल वस्तु को भी छोड़ दिया। फिर भोजन का आसेवन और फिर कोशा के हाव-भाव। सब कुछ रत्नकम्बल है ही क्या ? कोशा के इन वाक्यों ने मुनि के होते हुए भी क्षण भर के लिए मन का विचलित न होना, काम अन्तःकरण को बांध दिया। पुनः वह संयम में स्थिर हो गया। भोगों के रस को जानते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत की कठोर साधना उसे आचार्य के महादुष्कर कथन की स्मृति हो आई जिसके करना कितना महादुष्कर कार्य है ? यह वही कोशा है, जिसके कारण उसने यह प्रपंच रचा था। अन्त में वह आचार्य के पास साथ ये बारह वर्ष तक रहे थे। वहां रहकर इन्होंने अपनी आया और कृतदोष की आलोचना कर सिद्ध-बुद्ध और मुक्त साधना ही नहीं की है, अपितु कोशा जैसी वेश्या को भी एक हो गया। अच्छी श्राविका बनाया है। अतः इनके लिए यह सम्बोधन इस प्रसंग में यह उदाहरण भी मननीय है। यथार्थ है। एक संन्यासी गांव से दूर आश्रम बनाकर अपनी साधना उनमें से एक मनि ने गरु वचनों पर विपरीत श्रदा कर रहे थे। प्रतिदिन भक्तजन उनके पास आते और प्रवचन करते हुए कहा--कोशा के यहां रहना कौन सा महादष्कर कार्य सुनकर चले जाते। एक दिन महात्मा अपनी शिष्यमंडली के बीच है? वहां तो हर कोई साधना कर सकता है। आप मुझे अनुज्ञा वाचन करते-करते एक वाक्य पर अटक गए। ग्रंथ में दें, मैं अगला चतुर्मास वहीं बिताऊंगा। आचार्य नहीं चाहते थे लिखा था-ब्रह्मचर्य का पालन करना महादुष्कर है। वाक्य को कि वह मुनि देखा-देखी ऐसा करे। बार-बार गुरु के निषेध पढ़त पढ़ते ही वे चौंके और फिर अपने भक्तों से बोले-दुष्करता १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५६ : दंतसोहणमादिस्स त्ति, मकारोऽलाक्षणिकः,.... दन्तशोधनादेरपि। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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