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________________ मृगापुत्रीय ३१५ अध्ययन १६ : श्लोक ८५-६६ “वह पांच महाव्रतों से युक्त, पांच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, आंतरिक और बाहरी तपस्या में तत्पर-" “ममत्व रहित, अहंकार रहित, निर्लेप, गौरव को त्यागने वाला, त्रस और स्थावर सभी जीवों में समभाव रखने वाला—" “लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में सम रहने वाला-" ८८.पंचमहव्वयजुत्तो पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तो य। सन्भितरबाहिरओ तवोकमंसि उज्जुओ।। ८६.निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो। समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य।। ६०.लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु तहा माणावमाणओ।। ६१. गारवेसु कसाएसु दंडसल्लभएसु य। नियत्तो हाससोगाओ अनियाणो अबंधणो।। ६२.अणिस्सिओ इहं लोए परलोए अणिस्सिओ। वासीचंदणकप्पो य। असणे अणसणे तहा।। ६३. अप्पसत्थेहिं दारेहि सब्बओ पिहियासवे। अज्झप्पज्झाणजोगेहिं पसत्थदमसासणे।। ६४.एवं नाणेण चरणेण दसणेण तवेण य। भावणाहि य सुद्धाहिं सम्मं भावेत्तु अप्पयं ।। ६५.बहुयाणि उ वासाणि सामण्णमणुपालिया। मासिएण उ भत्तेण सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं।। ६६.एवं करंति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा। विणियटॅति भोगेसु मियापुत्ते जहारिसी।। पञ्चमहाव्रतयुक्तः पञ्चसमितस्त्रिगुप्तिगुप्तश्च। साभ्यन्तरबार्बी तपः कर्मणि उद्युतः।। निर्ममो निरहंकारः निस्सङ्गस्त्यक्तगौरवः। समश्च सर्वभूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च।। लाभालाभे सुखे दुःखे जीविते मरणे तथा। समो निन्दाप्रशंसयोः तथा मानापमानयोः।। गौरवेभ्यः कषायेभ्यः दण्डशल्यभयेभ्यश्च। निवृत्तो हासशोकात् अनिदानोऽबन्धनः।। अनिश्रित इह लोके परलोकेऽनिश्रितः। वासीचन्दनकल्पश्च अशनेऽनशने तथा।। अप्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः सर्वतः पिहितासवः। अध्यात्मध्यानयोगैः प्रशस्तदमशासनः।। “गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय," हास्य और शोक से निवृत्त, निदान और बन्धन से रहित-" "इहलोक और परलोक में अनासक्त, वसूले से । काटने और चन्दन लगाने पर तथा आहार मिलने या न मिलने पर सम रहने वाला-" अप्रशस्त द्वारों से आने वाले कर्म-पुद्गलों का सर्वतोनिरोध करने वाला, अध्यात्मध्यान-योग के द्वारा प्रशस्त एवं उपशम-प्रधान शासन में रहने वाला हुआ। “इस प्रकार ज्ञान, चारित्र, तप और विशुद्ध भावनाओं के द्वारा आत्मा को भली-भांति भावित कर-" एवं ज्ञानेन चरणेन दर्शनेन तपसा च। भावनाभिश्च शुद्धाभिः सम्यग् भावयित्वाऽऽत्मकम् ।। बहुकानि तु वर्षाणि श्रामण्यमनुपाल्य। मासिकेन तु भक्तेन सिद्धि प्राप्तोऽनुत्तराम् ।। एवं कुर्वन्ति संबुद्धाः पण्डिताः प्रविचक्षणाः। विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः मृगापुत्रो यथा ऋषिः।। "बहुत वर्षों तक श्रमण-धर्म का पालन कर, अन्त में एक महीने का अनशन कर वह अनुत्तर सिद्धिमोक्ष को प्राप्त हुआ।" “संबुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण जो होते हैं वे ऐसा करते हैं। वे भोगों से उसी प्रकार निवृत्त होते हैं, जिस प्रकार मृगापुत्र ऋषि हुए थे।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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