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________________ एगूणविंसइमं अज्झयणं : उन्नीसवां अध्ययन मियापुत्तिज्जं : मृगापुत्रीय हिन्दी अनुवाद कानन और उद्यान' से शोभित सुरम्य सुग्रीव नगर में बलभद्र राजा था। मृगा उसकी पटरानी थी। उनके 'बलश्री'२ नाम का पुत्र था। जनता में वह 'मृगापुत्र' इस नाम से विश्रुत था। वह माता-पिता को प्रिय, युवराज और दमीश्वर' था। वह दोगुन्दग' देवों की भांति सदा प्रमुदित-मन रहता हुआ आनन्द लेने वाले प्रासाद में स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। १. सुग्गीवे नयरे रम्मे काणणुज्जाणसोहिए। राया बलभद्दो त्ति मिया तस्सग्गमाहिसी। २. तेसिं पुत्ते बलसिरी मियापुत्ते त्ति विस्सुए। अम्मापिऊण दइए जुवराया दमीसरे।। ३. नंदणे सो उ पासाए कीलए सह इत्थिहिं। देवो दोगुंदगो चेव निच्चं मुइयमाणसो।। ४. मणिरयणकुट्टिमतले पासायालोयणट्ठिओ। आलोएइ नगरस्स चउक्कतियचच्चरे।। ५. अह तत्थ अइच्छंतं पासई समणसंजयं। तवनियमसंजमधरं सीलड्ढं गुणआगरं।। ६. तं देहई मियापुत्ते दिट्ठीए अणिमिसाए उ। कहिं मन्नेरिसं रूवं दिट्ठपुव्वं मए पुरा।। ७. साहुस्स दरिसणे तस्स अज्झवसाणम्मि सोहणे। मोहंगयस्स संतस्स जाईसरणं समुप्पन्नं।। संस्कृत छाया सुग्रीवे नगरे रम्ये काननोद्यानशोभिते। राजा बलभद्र इति मृगा तस्याग्रमहिषी।। तयोः पुत्रो बलश्रीः मृगापुत्र इति विश्रुतः। अम्बापित्रोदयितः युवराजो दमीश्वरः।। नन्दने स तु प्रासादे क्रीडति सह स्त्रीभिः। देवो दोगुन्दकश्चेव नित्यं मुदितमानसः।। मणिरत्नकुट्टिमतले प्रासादालोकनस्थितः। आलोकते नगरस्य चतुष्कत्रिकचत्वराणि।। अथ तत्रातिक्रामन्त पश्यति श्रमणसंयतम्। तपोनियमसंयमधरं शीलाढ्यं गुणाकरम्।। तं पश्यति मृगापुत्रः दृष्ट्याऽनिमेषया तु। कुत्र मन्ये ईदृशं रूपं दृष्टपूर्वं मया पुरा।। साधोर्दर्शने तस्य अध्यवसाने शोभने। मोहं गतस्य शान्तस्य जातिस्मरणं समुत्पन्नम्।। मणि और रत्न से जड़ित फर्श वाले प्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ मृगापुत्र नगर के चौराहों, तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था। उसने वहां जाते हुए एक संयत श्रमण को देखा, जो तप, नियम और संयम को धारण करने वाला, शील से समृद्ध और गुणों का आकर था। मृगापुत्र ने उसे अनिमेष-दृष्टि से देखा और मन ही मन चिन्तन करने लगा-“मैं मानता हूं कि ऐसा रूप मैंने पहले कहीं देखा है।" साधु के दर्शन और अध्यवसाय पवित्र होने पर “मैंने ऐसा कहीं देखा है"-इस विषय में सम्मोहित हो गया, चित्तवृत्ति सघनरूप में एकाग्र हो गई" और विकल्प शांत हो गए। इस अवस्था में उसे जाति स्मरण-पूर्व-जन्म की स्मृति हो आई। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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