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________________ टिप्पण १. कांपिल्य (कंपिल्ले) देखें- १३१२ का टिप्पण । २. (अणगारे तवोधणे) इस श्लोक ( ४ ) में केवल 'अनगार तपोधन' है। अनगार का नामोल्लेख नहीं हुआ है। किन्तु इसी प्रकरण में नियुक्तिकार ने अनगार का नाम 'गद्दभालि' – गर्दभाली बताया है ।' ३. लता - मंडप ( अप्फोव) अध्ययन १८ : संजयीय यह देशी शब्द है । चूर्णि और वृत्ति में इसका अर्थ हैवृक्ष आदि से आकीर्ण, विस्तृत, वृक्ष-गुच्छ गुल्म-लता से आच्छन्न ।' ४. तेज से (तेषण) 1 तपस्या के प्रभाव से अनेक लब्धियां उत्पन्न होती हैं। उनमें एक है—तेजीलब्धि इससे अनुग्रह और निग्रह दोनों किए जा सकते हैं। निग्रह की अवस्था में अनेक प्रदेशों और प्राणियों को भस्मसात् किया जा सकता है। (रट्ठ) राष्ट्र का अर्थ 'ग्राम, नगर आदि का समुदाय" या 'मण्डल' है।" प्राचीन काल में 'राष्ट्र' शब्द आज जितने व्यापक अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता था। वर्तमान में राष्ट्र का अर्थ हैपूर्ण प्रभुसत्ता प्राप्त देश। प्राचीन काल में एक ही देश में अनेक राष्ट्र होते थे। उनकी तुलना आज के प्रमण्डलों या राज्य सरकारों से की जा सकती है। मनुस्मृति में राष्ट्र का प्रयोग कुछ व्यापक अर्थ में भी हुआ लगता है।" १०. उस क्षत्रिय ने (खत्तिए) यहां क्षत्रिय का नाम नहीं बताया गया है। परम्परा के अनुसार यह व्यक्ति पूर्वजन्म में वैमानिक देव था। वहां से अनित्यता की विस्मृति मनुष्य को हिंसा की ओर ले जाती होकर क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ। उचित बाह्य निमित्त मिलने है । उसकी स्मृति अहिंसा की एक प्रबल प्रेरणा है । ६. अपने बन्धुओं को (बंधू) पर विरक्त हुआ और राष्ट्र को छोड़ कर प्रव्रजित हो गया। वह जनपद विहार करता हुआ संजय मुनि से मिला और उसने अनेक जिज्ञासाएं कीं।" ११. ५. (श्लोक ११) प्रस्तुत श्लोक में अहिंसा के आधारभूत दो तत्त्व प्रतिपादित हैं-अभय और अनित्यता का बोध । भय हिंसा का मुख्य कारण है । भय की आशंका से ही मनुष्य ने शस्त्र आदि का निर्माण किया है। सबसे अधिक भय मृत्यु का होता है। जो किसी का प्राण हरण नहीं करता वह अभयदाता हो जाता है। 9. यहां 'बंधू' शब्द प्रथमान्त बहुवचन है। 'बन्धून्' यह पद अध्याहार्य है। इसके आधार पर इसका अनुवाद होगा— बन्धु अपने बन्धुओं को श्मशान में ले जाते हैं।' उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ३१७ अह केसरमुज्जाणे नामेणं गद्दभालि अणगारो । २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४८ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४३८ अप्फोवमण्डवमिति वृक्षाद्याकीर्णे, तथा च वृद्धाः अप्फोव इति किमुक्तं भवति ? आस्तीर्णे, वृक्षगुच्छगुल्मलतासंछन्न इत्यर्थः । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४१ 'बन्धु' त्ति बन्धवश्च बन्धूनिति शेषः । ४. वही, पत्र ४४१ हृष्टाः बहिः पुलकादिमन्तः, तुष्टाः - आन्तरप्रीतिभाजः । ५. वही, पत्र ४४१ 'महय' त्ति महता आदरेणेतिशेषः, सुव्यत्ययेन वा महत् । ६. वही, पत्र ४४२ : 'राष्ट्र' ग्रामनगरादिसमुदायम् । Jain Education International ७. हृष्ट-तुष्ट (हट्ठतुट्ठ) बाहर से पुलकित होने को 'हृष्ट' और मानसिक प्रीति का अनुभव करने को 'तुष्ट' कहा जाता है।" ८. महान् आदर के साथ ( महया) I वृत्तिकार को यहां 'महया' शब्द के दोनों अर्थ अभिप्रेत हैं। इसका एक अर्थ होगा- महान् आदर के साथ । विभक्ति व्यत्यय द्वारा तृतीया के स्थान पर प्रथमा विभक्ति मान लेने पर इसका संस्कृत रूप महत् होता है ।' तब वह धर्म का विशेषण बनता है और इसका अर्थ होता है—महान् धर्म । 'महता' यह साधन बनता है। ९. राष्ट्र को ( श्लोक २१, २२) यहां क्षत्रिय ने पांच प्रश्न पूछे ७. वही, पत्र ४४१ 'राष्ट्र' मण्डलम् । ८. राजप्रश्नीयवृत्ति, पृ० २७६ : राज्यम् - राष्ट्रादिसमुदायात्मकम् । राष्ट्र च जनपदं च । ६. मनुस्मृति, १० १६१ : यत्र त्वेते परिध्वंसाज्जायन्ते वर्णदूषकाः । राष्ट्रिकैः सह तद्राष्ट्रं क्षिप्रमेव विनश्यति ।। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४२ 'क्षत्रियः' क्षत्रजातिरनिर्दिष्टनामा परिभाषते, संजयमुनिमित्युपस्कारः, स हि पूर्वजन्मनि वैमानिक आसीत्, ततश्च्युतः क्षत्रियकुलेऽजनि तत्र च कुतश्चित्तथाविधनिमित्ततः स्मृतपूर्वजन्मा तत एव चोत्पन्नवैराग्यः प्रव्रज्यां गृहीतवान् गृहीतप्रव्रज्यश्च विहरन् संजयमुनिं दृष्ट्वा तद्विमर्शार्थमिदमुक्तवान् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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