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________________ संजयीय २९५ अध्ययन १८ :श्लोक २३ टि० १२-१३ (१) तुम्हारा नाम क्या है? (३) अज्ञानवाद : जो अज्ञान से ही सिद्धि मानते हैं वे (२) तुम्हारा गोत्र क्या है ? अज्ञानवादी हैं। इनकी मान्यता है कि कई जगत् को ब्रह्मादि (३) तुम माहन किसलिए बने हो? विवर्त्तमय, कई प्रकृति-पुरुषात्मक, कई षड्द्रव्यात्मक, कई (४) तुम आचार्यों की प्रतिचर्या कैसे करते हो? चतुःसत्यात्मक, कई विज्ञानमय, कई शून्यमय आदि-आदि मानते (५) तुम विनीत कैसे कहलाते हो? हैं। इसी प्रकार आत्मा भी नित्य, अनित्य आदि अनेक प्रकारों संजय मुनि ने इनके उत्तर में कहा-- से जानी जाती है-इन सबके ज्ञान से क्या? यह ज्ञान (१) मेरा नाम संजय है। स्वर्ग-प्राप्ति के लिए अनुपयुक्त है, अकिंचित्कर है आदि-आदि। (२) मेरा गोत्र गौतम है। (४) विनयवाद : जो विनय से ही मुक्ति मानते हैं वे (३) मैं मुक्ति के लिए माहन बना हूं। विनयवादी हैं। इनकी मान्यता है कि देव, दानव, राजा, तपस्वी, (४) मैं अपने आचार्य गर्दभालि के आदेशानुसार प्रतिचर्या हाथी, घोड़ा, हरिण, गाय, भैंस, शृंगाल आदि को नमस्कार करने ___ करता हूं। से क्लेश का नाश होता है। विनय से ही कल्याण होता है, (५) मैं आचार्य के उपदेश का आसेवन करता हूं, अन्यथा नहीं। इसलिए 'विनीत' कहलाता हूं। क्रियावादियों के १८० भेद, अक्रियावादियों के ८४ भेद, २२वें श्लोक में नाम और गोत्र के उत्तर स्पष्ट शब्दों में वैनयिकों के ३२ भेद और अज्ञानियों के ६७ भेद मिलते हैं। इस हैं। शेष तीन उत्तर 'गद्दभाली ममायरिया, विज्जाचरणपारगा' इन प्रकार इन सबके ३६३ भेद होते हैं। दो चरणों में समाहित किए गए हैं।' अकलंकदेव ने इन वादों के आचार्यों का भी नामोल्लेख १२. एकांतवादी तत्त्ववेत्ता (मेयन्ने) किया हैमेय का अर्थ है-ज्ञेय। मेय को जानने वाला मेयज्ञ कोक्कल, कांठेविद्धि, कौशिक, हरि, श्मश्रुमान, कपिल, कहलाता है। क्षत्रिय मुनि ने एकान्त क्रियावादी, अक्रियावादी रोमश, हारित, अश्व, मुण्ड, आश्वलायन आदि १८० क्रियावाद दार्शनिकों के सिद्धान्तों की चर्चा पर महावीर के अनेकान्तवादी के आचार्य व उनके अभिमत हैं। दृष्टिकोण से संजय ऋषि को परिचित कराया। मरीचि, कुमार, उलूक, कपिल, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वादलि, १३. (श्लोक २३) माठर, मौद्गल्यायन आदि ८४ अक्रियावाद के आचार्य व उनके इस श्लोक में चार वादों-(१) क्रियावाद (२) अक्रियावाद अभिमत हैं। (३) अज्ञानवाद (४) विनयवाद के विषय में राजर्षि से पूछा गया साकल्य, वाष्कल, कुथुमि, सात्यमुनि, चारायण, काठ, है। भगवान् महावीर के समसामयिक सभी वादों का यह माध्यन्दिनी मौद, पैप्पलाद, बादरायण, स्विष्टिकृत, 'ऐतिकायन, वर्गीकरण है। सूत्रकृतांग में इन्हें 'चार समवसरण' कहा गया वसु, जैमिनी आदि ६७ अज्ञानवाद के आचार्य व उनके अभिमत है। इनके तीन सौ तिरसठ भेद होते हैं। (१) क्रियावाद : क्रियावादी आत्मा का अस्तित्व मानते हैं वशिष्ट, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिणि, सत्यदत्त, किन्तु वह व्यापक है या अव्यापक, कर्ता है या अकर्ता, क्रियावान व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, इन्द्रदत्त, अयस्थूल आदि ३२ है या अक्रियावान, मूर्त है अमूर्त- इसमें उन्हें विप्रतिपत्ति रहती विनयवाद के आचार्य व उनके अभिमत हैं। इस संसार में भिन्न-भिन्न रुचि वाले लोग हैं। कई (२) अक्रियावाद: जो आत्मा के अस्तित्व को नहीं क्रियावाद में विश्वास करते हैं और कई अक्रियावाद में। राजर्षि मानते वे अक्रियावादी हैं। दूसरे शब्दों में इन्हें नास्तिक भी कहा ने कहा-धीर पुरुष क्रियावाद में रुचि रखे और अक्रियावाद का जा सकता है। कई अक्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार वजन कर। करते हैं, परन्तु “आत्मा का शरीर के साथ एकत्व है या जैन दर्शन क्रियावादी है पर एकांतदृष्टि नहीं है, अन्यत्व, यह नहीं कहा जा सकता"-ऐसा मानते हैं। कई इसलिए वह सम्यग्वाद है। जिसे आत्मा आदि तत्त्वों में अक्रियावादी आत्मा की उत्पत्ति के अनन्तर ही उसका प्रलय विश्वास होता है, वही क्रियावाद (अस्तित्ववाद) का निर पण मानते हैं। कर सकता है। १. बृहद्वृति, पत्र ४४२-४४३ : विद्याचरणपारगत्वाच्च तैस्तन्निवृत्ती मुक्तिलक्षणं एवं त्रिषष्ट्यधिकशतत्रयम् । फलमुक्त, ततस्तदर्थं माहनोऽस्मि, यथा च तदुपदेशस्तथा गुरुन् प्रतिचरामि, ४. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ८१, पृ०५६२। तदुपदेशासेवनाच्च विनीतः। ५. सूयगडो, १।१०।१७। २. सूयगडो, १।१२।१। ६. उत्तरज्झयणाणि, १८।३३। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४४ : तत्र तावच्छतमशीतं क्रियावादिनां अक्रियावादिनश्च ७. सूयगडो, १।१२।२०-२१॥ चतुरशीतिसंख्याः, अज्ञानिकाः सप्तषष्टिविधाः वैनयिकवादिनो द्वात्रिंशत् Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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