SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि २९६ अध्ययन १८ : श्लोक २६-३१ टि० १४-२२ देखें-२४वां टिप्पण। १८. (श्लोक २९) १४. (श्लोक २६) क्षत्रिय मुनि ने संजय मुनि को अपने पूर्वजन्म की क्षत्रिय श्रमण ने कहा-मैं उन मायापूर्ण एकांतवादों से जानकारी दी। इससे ध्वनित होता है कि उन्हें जातिस्मरण ज्ञान बचकर रहता हूं और चलता हूं। वृत्तिकार के अनुसार क्षत्रिय उपलब्ध था। जातिस्मरण के द्वारा अपने पूर्वजन्म को जाना जा मुनि ने यह बात संजय मुनि के स्थिरीकरण के लिए कही।' सकता है। उन्होंने आगे कहा-मैं जिस प्रकार अपनी आयु को १५. महाप्राण (महापाणे) जानता हूं उसी प्रकार दूसरों की आयु को भी जानता हूं। यह पांचवें देवलोक का एक विमान है। जातिस्मरण से दूसरों की आयु को नहीं जाना जा सकता। इससे १६. मैंने वहां पूर्ण आयु का भोग किया है (वरिससमोवमे) ज्ञात होता है कि उन्हें दूसरों का पूर्वजन्म जानने की विद्या भी मनुष्य-लोक में सौ वर्ष की आयु पूर्ण आयु मानी जाती प्राप्त है। इसी दृष्टि से देवलोक की पूर्ण आयु की उससे तुलना की गई १९. रुचि (रुई) है। क्षत्रिय मुनि ने कहा-जैसे मनुष्य यहां सौ वर्ष की आयु यहां रुचि का अर्थ है-क्रियावाद, अक्रियावाद आदि भोगते हैं, वैसे मैंने वहां दिव्य सौ वर्ष की आयु का भोग किया दर्शनों के प्रति होने वाली अभिलाषा। २०. सब प्रकार के अनर्थ (सव्वत्था) १७. (पाली महापाली) इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं और उनके आधार पर पाल जैसे जल को धारण करती है वैसे ही भव-स्थिति अर्थ भी दो होते हैंजीवन-जल को धारण करती है। इसलिए उसे 'पाली' कहा गया १. सर्वार्थाः-हिंसा आदि अशेष विषय। २. सर्वत्र-आकार को अलाक्षणिक मानने पर इसका 'पाली' को पल्योपम-प्रमाण और 'महापाली' को संस्कृत रूप 'सर्वत्र' होगा और अर्थ होगा सभी सागरोपम-प्रमाण माना गया है। यह गणनातीत (उपमेय) काल क्षेत्र आदि में। है। असंख्य-काल का एक पल्य होता है और दस कोडाकोड २१. गृहस्थ-कार्य-सम्बन्धी मंत्रणाओं से (परमंतेहिं) पल्यों का एक सागर है। विशद जानकारी के लिए देखिए- मुनि ने कहा-मैं अंगुष्ठ-विद्या आदि प्रश्नों से दूर रहता अणुओगदाराई, सूत्र ४१८ आदि। हूं, किन्तु गृहस्थ-कार्य-सम्बन्धी मंत्रणाओं से विशेष दूर रहता यहां 'महापाली' भव-स्थिति को 'वर्षशतोपमा' माना है। हूं। क्योंकि वे अतिसावध होती हैं। अतः मेरे लिए करणीय नहीं मनुष्य-लोक में सौ वर्ष की आयु पूर्ण आयु मानी जाती है, होती। उसी तरह महाप्राण देवलोक में महापाली परम आयु मानी २२. समझकर (विज्जा) जाती है। इसलिए पुनः महापाली को वर्षशतोपम कहा गया। विज्जा' (सं० विद्वान) शब्द क्वसु प्रत्ययान्त है। क्वसु पल्योपम काल को एक पल्य की उपमा से समझाया गया है। प्रत्यय भूत और वर्तमान—दोनों अर्थों में होता है। प्रस्तुत संदर्भ पल्य में से एक बाल सौ-सौ वर्षों के अन्तर से निकाला जाता में क्वस प्रत्यय वर्तमान अर्थ में निर्दिष्ट है। इसका अर्थ है है। इसीलिए उसे 'वर्षशतोपम' कहा हो, यह भी कल्पना की जा जानकर-समझकर। वृत्ति में विद्वान् का अर्थ जानता हुआ सकती है। किया है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४५ : 'संजममाणोऽवि' त्ति 'अपि' एवकारार्थस्ततः ततो वर्षशते पूर्णे, एकैकं केशमुद्धरेत्। संयच्छन्नेव-उपरमन्नेव तदुक्त्याकर्णनादितः 'अहम्' इत्यात्मनिर्देशे क्षीयते येन कालेन, तत्पल्योपममुच्यते।।२।।" विशेषतस्तत्स्थिरीकरणार्थम्, उक्तं हि-'ठियतो ठावए परं' ति। इति वचनाद्वर्षशतैः केशोद्धारहेतुभिरुपमा अर्थात् पल्यविषया यस्या सा २. वही, पत्र ४४५ : महाप्राणे महाप्राणनाम्नि ब्रह्मलोकविमाने। वर्षशतोपमा, द्विविधाऽपि स्थितिः, सागरोपमस्यापि पल्योपमनिष्पाद्यत्वात, ३. वही, पत्र ४४५ : 'वरिससतोवमे' त्ति वर्षशतजीविना उपमा-दृष्टान्तो तत्र मम महापाली दिव्या भवस्थितिरासीदित्युपस्कारः, अतश्चाहं यस्यासी वर्षशतोपमो मयूरव्यंसकादित्वात्समासः, ततोऽयमर्थः—यथेह वर्षशतोपमायुरभूवमिति भावः । वर्षशतजीवी इदानी परिपूर्णायुरुच्यते, एवमहमपि तत्र परिपूर्णायुरभूवम्। ६. वही, पत्र ४४६ : रुचिं च–प्रक्रमात् क्रियावाद्यादिमतविषयमभिलाषम् । ४. वही, पत्र ४४५ : तथाहि-य सा पालिरिव पालिः-जीवितजलधारणाद् ७. वही, पत्र ४४६ । भवस्थितिः, सा चोत्तरत्र महाशब्दोपादानादिह पल्योपमप्रमाणा। ८. वही, पत्र ४४६ : प्रतीपं क्रामामि प्रतिक्रामामि-प्रतिनिवर्ते, केभ्यः ?वही, पत्र ४४५-४४६ : दिवि भवा दिव्या वर्षशतेनोपमा यस्याः सा 'पसिणाणं' ति सुब्यत्ययात् 'प्रश्नेभ्यः' शुभाशुभसूचकेभ्योऽङ्गुष्ठप्रश्नादिभ्यः, वर्षशतोपमा, यथा हि वर्षशतमिह परमायुः तथा तत्र महापाली, अन्येभ्यो वा साधिकरणेभ्यः, तथा परे-गृहस्थास्तेषां मन्त्राः परमन्त्राःउत्कृष्टतोऽपि हि तत्र सागरोपमैरेवायुरुपनीयते, न तूत्सर्पिण्यादिभिः तत्कार्यालोचनरूपास्तेभ्यः,....प्रतिकमामि, अतिसावद्यत्वात्तेषाम् । अथवा ६. श्रीभिक्षुशब्दानुशासनं, ५३१६ : 'वेत्तेर्वा क्वसुः'। “योजनं विस्तृतः पल्यस्तथा योजनमुत्सृतः। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४६ : "विज्ज' त्ति विद्वान् जानन्। सप्तरात्रप्ररूढाणां केशाग्राणां स पूरितः।। १।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy