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संजयीय
२३. (श्लोक ३१-३२)
क्षत्रिय मुनि ने राजर्षि संजय से कहा- तुमने मुझे आयु के विषय में प्रश्न किया है। मैं अपना आयुष्य-काल और दूसरों का आयुष्य काल भी जानता हूं, किन्तु मैं ऐसे प्रश्नों से अतीत हो चुका हूं। फिर भी तुमने जानने की दृष्टि से मुझे पूछा है। वह मैं बताता हूं।
फिर क्षत्रिय मुनि ने संभवतः संजय को उनके आयुष्यकाल के विषय में कुछ बताया हो, ऐसा प्रतीत होता है। उन्होंने आगे कहा- मृत्यु विषयक ज्ञान जैन शासन में विद्यमान है। जिनशासन की आराधना करो, वह ज्ञान तुम्हें भी उपलब्ध हो सकेगा।'
२४. क्रियावाद... अक्रियावाद (किरिय... अकिरिय)
सूत्रकृतांग चूर्णि के अनुसार क्रिया का अर्थ है-कंपन । एजन, कंपन, गमन, और क्रिया ( प्रवृत्ति) ये सब एकार्थक हैं। महर्षि पतंजलि ने चित्त निरोध के प्रयत्न को क्रिया कहा है। उन्होंने तीन प्रकार की क्रियाएं मानी हैं—१. शारीरिक क्रियायोगतपस्या आदि २. वाचिक क्रियायोग — स्वाध्याय आदि और ३. मानस क्रियायोग — ईश्वर प्रणिधान आदि । *
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भगवान महावीर के समय में चार प्रकार के वाद प्रचलित थे— क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद । प्रस्तुत प्रसंग में 'किरिआ' शब्द क्रियावाद के अर्थ में प्रयुक्त है। क्रियावाद का अर्थ है-आत्मा आदि पदार्थों में विश्वास करना तथा आत्मकर्तृत्व को स्वीकार करना। इसके चार अर्थ फलित होते हैं—आस्तिकवाद, सम्यग्वाद, पुनर्जन्मवाद और कर्मवाद
अक्रियावाद की चार प्रतिपत्तियां हैं
१. आत्मा का अस्वीकार ।
२. आत्मा के कर्तृत्व का अस्वीकार ।
३. कर्म का अस्वीकार ।
४. पुनर्जन्म का अस्वीकार ।
अक्रियावादी को नास्तिकवादी, नास्तिकप्रज्ञ और नास्तिकदृष्टि कहा गया है। स्थानांग सूत्र में अक्रियावादी के आठ प्रकार बतलाए हैं
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४७ 'अप्पणो य परेसिं च' इत्यादिना तस्यायुर्विज्ञतामवगम्य संजयमुनिनाऽसौ पृष्टः कियन्ममायुरिति, ततोऽसौ प्राह यच्च त्वं मां कालविषयं पृच्छसि तत्प्रादुष्कृतवान् 'बुद्ध' सर्वज्ञोऽत एव तज्ज्ञानं जिनशासने व्यवच्छेदफलत्वाज्जिनशासन एव न त्वन्यस्मिन् सुगतादिशासने, अतो जिनशासन एव यत्नो विधेयो येन यथाऽहं जानामि तथा त्वमपि
जानीषे ।
२. सूत्रकृतांग चूर्णि पृष्ठ ३३६ एजनं कंपन गमनं क्रियेत्यनर्थान्तरम् । ३. पातंजलयोगदर्शनम् २।१ 'तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ।' ४. द. चू. १। पृष्ठ २७ किरिया नाम अत्थिवादो भण्णइ ।
५. देखें-सूयगडो १।१२।१ का टिप्पण।
६. दशाश्रुतस्कन्ध दशा ६, सूत्र ३ ।
७. दशाश्रुतस्कन्ध दशा ६, सूत्र ६ ।
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अध्ययन १८ श्लोक ३२-४४ टि० २३-२७
१. एकवादी
५. सातवादी
२. अनेकवादी
३. मितवादी
६. समुच्छेदवादी ७. नित्यवादी
४. निर्मितवादी ८. असत्परलोकवादी इनके विशेष विवरण के लिए देखें— ठाणं ८ २२ का टिप्पण तथा सूयगडो १।१२।१ का टिप्पण |
वृत्तिकार ने क्रिया का अर्थ अस्तिवाद और सत्अनुष्ठान तथा अक्रिया का अर्थ नास्तिवाद और मिथ्याअनुष्ठान किया है।
देखें- इसी अध्ययन का १३ वां टिप्पण । २५. सागर पर्यन्त (सागरंत)
तीन दिशाओं-पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में सागर पर्यन्त और एक दिशा उत्तर में हिमालय पर्वत तक। २६. अहिंसा ( दवाए)
प्रश्न व्याकरण में अहिंसा के ६० नाम गिनाएं हैं। उनमें एक नाम है--दया। यहां दया अहिंसा के अर्थ में प्रयुक्त है।" वृत्तिकार ने दया का अर्थ संयम किया है।" दशवैकालिक में लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य — ये चार विशुद्धि स्थान बतलाए गए हैं।" अहिंसा की परिभाषा सब जीवों के प्रति संयम है । अतः दया का अर्थ संयम भी किया जा सकता है। २७. ( नमी नमेइ अप्पाणं..... सामण्णे पज्जुवट्ठिओ) यह श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। इस निर्णय के अनेक कारण हैं
१.
यह नौवें अध्ययन (६।६१) में आ चुका है । २. शान्त्याचार्य ने अपनी वृत्ति में इसकी व्याख्या नहीं की है |
३. इससे अग्रवर्ती श्लोक में नमीराज का उल्लेख आया है।
४. शान्त्याचार्य ने 'सूत्राणि सप्तदश' ऐसा उल्लेख किया है ।
'एयं पुण्णपयं सोच्या' (३४ ये श्लोक ) में 'तहेतुग्गं तवं किच्चा' (५० वें श्लोक) तक १७ श्लोक होते हैं। उनमें 'नमि
ठाणं ८।२२।
८.
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४७ : 'क्रियां' च 'अस्ति जीव इत्यादिरूपां सदनुष्ठानात्मिकां वा... तथा 'अक्रियां' नास्त्यात्मेत्यादिकां मिथ्यादृक्परिकल्पिततत्तदनुष्ठानरूपां वा ।
१०. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४८ सागरान्तं समुद्रपर्यन्तं दित्रये, अन्यत्र तु हिमवत्पर्यन्तमित्युपस्कारः ।
११. प्रश्नव्याकरण, ६ 1१1३ ।
१२. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४८ दयया- संयमेन ।
१३. दसवेआलियं ६।१।१३ लज्जा दया संजम बंभचेर, कल्लाणभागिरस विसोहिठाणं ।
१४. दसवेआलियं ६८ अहिंसा निउणं दिट्ठा, सब्बभूएस संजमो ।।
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