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________________ उत्तरज्झयणाणि २९८ अध्ययन १८ : श्लोक ४५ टि० २८ नमेइ अप्पाणं' तथा 'करकंडू कलिंगेसु' श्लोकों की व्याख्या रानी राजा का वेष धारण कर हाथी पर बैठी। राजा स्वयं बृहद्वृत्ति में नहीं है। दोनों को प्रक्षिप्त मानने से 'सप्तदश उसके मस्तक पर छत्र लगा कर खड़ा था। रानी का दोहद पूरा सूत्राणि' की बात नहीं बैठती और 'करकंडू कलिंगेसु' को प्रक्षिप्त हुआ। वर्षा आने लगी। हाथी वन की ओर भागा। राजा रानी मानना भी युक्तियुक्त नहीं लगता। क्योंकि 'नमि नमेइ अप्पाणं' घबड़ाए। राजा ने रानी से वट वृक्ष की शाखा पकड़ने के लिए इसकी तो पुनरावृत्ति हुई है और 'करकंडू कलिंगेसु'- यह कहा। हाथी उस वट वृक्ष के नीचे से निकला। राजा ने एक डाल श्लोक पहली बार आया है। अतः 'नमी नमेइ अप्पाणं' को ही पकड़ ली। रानी डाल नहीं पकड़ सकी। हाथी रानी को ले भागा। प्रक्षिप्त मानना चाहिए।' राजा अकेला रह गया। रानी के वियोग से वह अत्यन्त दुःखी २८. (श्लोक ४५) हो गया। मुनि के तीन प्रकार होते हैं हाथी थककर निर्जन वन में जा ठहरा। उसे एक तालाब १. स्वयंबुद्ध-जो स्वयं बोधि प्राप्त करते हैं। दिखा। वह प्यास बुझाने के लिए पानी में घुसा। रानी अवसर २. प्रत्येकबुद्ध-जो किसी एक निमित्त से बोधि प्राप्त देख नीचे उतरी और तालाब से बाहर आ गई। करते हैं। वह दिग्मूढ़ हो इधर-उधर देखने लगी। भयाक्रांत हो वह ३. बुद्धबोधित--जो गुरु के उपदेश से बोधि प्राप्त करते एक दिशा की ओर चल पड़ी। उसने एक तापस देखा। उसके निकट जा प्रणाम किया। तापस ने उसका परिचय पूछा। रानी प्रत्येकबुद्ध एकाकी विहार करते हैं। वे गच्छवास में नहीं ने सब बता दिया। तापस ने कहा-“में भी महाराज चेटक का रहते। प्रस्तुत श्लोक में चार प्रत्येकबुद्धों का उल्लेख है- सगोत्री हूं। अब भयभीत होने की कोई बात नहीं।" उसने रानी १. करकण्डु-कलिंग का राजा। को आश्वत कर, फल भेंट किए। रानी ने फल खाए। दोनों वहां २. द्विमुख-पंचाल का राजा। से चले। कुछ दूर जाकर तापस ने गांव दिखाते हुए कहा—'मैं ३. नमि-विदेह का राजा। इस हल-कृष्ट भूमि पर चल नहीं सकता। वह दंतपुर नगर दीख ४. नग्गति-गान्धार का राजा। रहा है। वहां दंतवक्र राजा है। तुम निर्भय हो वहां चली जाओ इनका विस्तृत वर्णन टीका में प्राप्त है। ये चारों प्रत्येकबुद्ध और अच्छा साथ देखकर चम्पापुरी चली जाना। एक साथ, एक ही समय में देवलोक से च्युत हुए, एक साथ रानी पद्मावती दंतपुर पहुंची। वहां उसने एक उपाश्रय में प्रव्रजित हुए, एक ही समय में बुद्ध हुए, एक ही समय में साध्वियों को देखा। उनके पास जा वन्दना की। साध्वियों ने केवली बने और एक साथ सिद्ध हुए।" परिचय पूछा। उसने सारा हाल कह सुनाया. पर गर्भ की बात करकण्डु बूढ़े बैल को देखकर प्रतिबुद्ध हुआ। गुप्त रख ली। द्विमुख इन्द्रध्वज को देखकर प्रतिबुद्ध हुआ। साध्वियों की बात सुन रानी को वैराग्य हुआ। उसने दीक्षा नमि एक चूड़ी की नीरवता को देखकर प्रतिबुद्ध हुआ। ले ली। गर्भ वृद्धिंगत हुआ। महत्तरिका ने यह देख रानी से नग्गति मजरी विहीन आम्र-वृक्ष को देखकर प्रतिबुद्ध हुआ। पूछा। साध्वी रानी ने सच-सच बात बता दी। महत्तरिका ने यह बौद्ध ग्रन्थों में भी इन चार प्रत्येकबुद्धों का उल्लेख मिलता बात गुप्त रखी। काल बीता। गर्भ के दिन पूरे हए। रानी ने है। किन्तु इनके जीवन-चरित्र तथा बोधि-प्राप्ति के निमित्तों के शय्यातर के घर जा प्रसव किया। उस नवजात शिशु को उल्लेख में भिन्नता है। रत्नकम्बल में लपेटा और अपनी नामांकित मुद्रा उसे पहना चारों प्रत्येकबुद्धों का जीवनवृत्त इस प्रकार है श्मशान में छोड़ दिया। श्मशानपाल ने उसे उठाया और अपनी १. करकण्डु स्त्री को दे दिया। उसने उसका नाम 'अवकीर्णक' रखा। साध्वी चम्पा नगरी में दधिवाहन नाम का राजा राज्य करता था। रानी ने श्मशानपाल की पत्नी से मित्रता की। रानी जब उपाश्रय उसकी रानी का नाम पद्मावती था। वह गणतन्त्र के अधिनेता में पहुंची तब साध्वियों ने गर्भ के विषय में पूछा। उसने कहामहाराज चेटक की पुत्री थी। मृत पुत्र हुआ था। मैंने उसे फेंक दिया। एक बार रानी गर्भवती हुई। उसे दोहद उत्पन्न हुआ। बालक श्मशानपाल के यहां बड़ा हुआ। वह अपने परन्तु वह उसे व्यक्त करने में लज्जा का अनुभव करती रही। समवयस्क बालकों के साथ खेल खेलते समय कहता-'मैं शरीर सूख गया। राजा के पूछने पर रानी ने अपने मन की बात तुम्हारा राजा हूं। मुझे 'कर' दो।' कह दीं। एक बार उसके शरीर में सूखी खुजली हो गई। वह अपने १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४७-४४८। ५. सुखबोधा, पत्र १३३ : २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५२५-५२८। वसहे च इन्दकेऊ, वलए अम्बे य पुफ्फिए बोही। ३. सुखबोधा, पत्र १३३-१४५। करकंड दुम्मुहस्सा, नमिस्स गन्धाररन्नो य। ४. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २७०। ६. कुम्भकार जातक (सं०४०८)। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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