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________________ पनरसमं अज्झयणं : पन्द्रहवां अध्ययन सभिक्खुयं : सभिक्षुक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्म मौनं चरिष्यामि समेत्य धर्म 'धर्म को स्वीकार कर मुनि-व्रत का' आचरण सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने। सहित ऋजुकृतः छिन्ननिदानः।। करूंगा-जो ऐसा संकल्प करता है, जो सहिष्णु संथवं जहिज्ज अकामकामे संस्तवं जह्यादकामकामः है, जिसका अनुष्ठान ऋजु है', जो वासना के अन्नायएसी परिव्वए जेस भिक्खू।। अज्ञातैषी परिव्रजेत् स भिक्षुः ।। संकल्प का छेदन करता है', जो परिचय का' त्याग करता है, जो काम-भोगों की अभिलाषा को छोड़ चुका है, जो तप आदि का परिचय दिए बिना भिक्षा की खोज करता है, जो अप्रतिबद्ध विहार करता है.--वह भिक्षु है। २. राओवरयं चरेज्ज लाढे रागोपरतं चरेद् लाढः जो राग से उपरत होकर विहार करता है, जो विरए वेयवियाऽऽयरक्खिए। विरतो वेदविदात्मरक्षिकः। निर्दोष आहार से जीवन-यापन करता है, जो पन्ने अभिभूय सव्वदंसी प्रज्ञोऽभिभूय सर्वदर्शी विरत, आगम को जानने वाला और आत्म-रक्षक जे कम्हिचि न मुच्छिए स भिक्खू।। यः कस्मिनपि न मूछितः स भिक्षुः।। है', जो प्रज्ञ है, जो परीषहों को जीतने वाला और सब जीवों को आत्म-तुल्य समझने वाला है", जो किसी भी वस्तु में मृञ्छित नहीं होता-वह भिक्षु है। ३. अक्कोसवहं विइत्तु धीरे आक्रोशवधं विदित्वा धीरः जो धीर मुनि कठोर वचन और ताड़ना को मुणी चरे लाढे निच्चमायगुत्ते। मुनिश्चरेद् लाढः नित्यमात्मगुप्तः। अपने कर्मों का फल जानकर शान्त भाव से अव्वग्गमणे असंपहिडे अव्यग्रमना असंप्रहृष्टः विचरण करता है, जो प्रशस्त है, जो सदा जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ।। यः कृत्स्नमध्यास्ते स भिक्षुः ।। आत्मा का संवरण किये रहता है२. जिसका मन आकुलता और हर्ष से रहित होता है, जो सब कुछ सहन करता है-वह भिक्षु है। ४. पंतं सयणासणं भइत्ता प्रान्त्यं शयनासनं भुक्त्वा तुच्छ शयन और आसन का सेवन करके सीउण्हं विविहं च दंसमसगं। शीतोष्णं विविधं च दंशमशकम्।। तथा सर्दी, गर्मी, डांस और मच्छरों के त्रास को अव्वग्गमणे असंपहिडे अव्यग्रमना असंप्रहृष्टः सहन करके भी जिसका मन आकुलता और जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ।। यः कृत्स्नमध्यास्ते स भिक्षुः ।। हर्ष से रहित होता है, जो सब कुछ सहन करता है वह भिक्षु है। ५. नो सक्कियमिच्छई न पूर्य नो सत्कृतमिच्छति न पूजा जो सत्कार, पूजा और वन्दना की इच्छा नहीं नो वि य वंदणगं कुओ पसंसं?। नो अपि च वंदनकं कुतः प्रशंसाम् ? करता वह प्रशंसा की इच्छा कैसे करेगा? जो से संजए सुब्बए तवस्सी स संयतः सुव्रतस्तपस्वी संयत, सुव्रत, तपस्वी, दूसरे भिक्षुओं के साथ रहने सहिए आयगवेसए स भिक्खू।। सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः।। वाला और आत्म-गवेषक है"-वह भिक्षु है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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