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________________ इस अध्ययन में भिक्षु के लक्षणों का निरूपण है, इसलिए इसका नाम 'सभिक्खुयं' - 'सभिक्षुक' रखा गया है। भिक्षु अकेला होता है। उसके न कोई मित्र होता और न कोई शत्रु । वह सभी सम्बन्धों से विप्रमुक्त होता है। वह साधना करता है। वह अध्यात्म की कला को कभी जीविका उपार्जन के लिए प्रयुक्त नहीं करता। वह सदा जितेन्द्रिय रहता है । (श्लोक १६) जीवन भयाकुल है। उसके प्रत्येक चरण में भय ही भय है। भिक्षु अभय की साधना करता है। पहले-पहल वह भय को जीतने के लिए उपाश्रय में ही मध्य रात्रि में उठ कर अकेला ही कायोत्सर्ग करता है। दूसरी बार उपाश्रय से बाहर, तीसरी बार दूर 'चौराहे पर, चौथी बार शून्य-गृह में और अन्त में श्मशान में अकेला जा कायोत्सर्ग करता है। वह भय मुक्त हो जाता है। अभय अहिंसा का परिपाक है। (श्लोक १४ ) - आमुख मुनि को प्रत्येक वस्तु याचित ही मिलती है । अयाचित कुछ भी नहीं मिलता। जो इच्छित वस्तु मिलने पर प्रसन्न और न मिलने पर अप्रसन्न नहीं होता वह भिक्षु है। भिक्षु के लिए सभी द्वार खुले हैं। कोई दाता देता है और कोई नहीं भी देता। इन दोनों स्थितियों में जो सम रहता है वह भिक्षु है। ( श्लोक ११, १२) 1 मुनि सरस आहार मिलने पर उसकी प्रशंसा और नीरस मिलने पर उसकी गर्हा न करे। ऊंचे कुलों की भिक्षा करने के साथ-साथ प्रान्त कुलों से भी भिक्षा ले । भिक्षा में जो कुछ प्राप्त हो उसी में सन्तोष करने वाला भिक्षु होता है। (श्लोक १३ ) मुनि अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए हीन भाव से किसी के आगे हाथ नहीं पसारता। वह याचना में भी अपने आत्म गौरव को नहीं खोता । बड़े व्यक्तियों की न वह चापलूसी करता है और न छोटे व्यक्तियों का तिरस्कार, न वह धनवानों की श्लाघा करता है और न निर्धनों की निन्दा। सबके प्रति उसका बर्ताव सम होता है। (श्लोक ६ ) दशवैकालिक का दसवां अध्ययन 'सभिक्खु' है। उसमें २१ श्लोक हैं। इस अध्ययन में १६ श्लोक हैं। उद्देश्य साम्य होने पर भी दोनों के वर्णन में अन्तर है। कहीं-कहीं श्लोकों के पदों में शब्द-साम्य है । इस अध्ययन में प्रयुक्त भिक्षु के कई विशेषण नए हैं। इसके समग्र अध्ययन से भिक्षु को जीवन-यापन विधि का १. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ३७८-३७६ रागद्दोसा दंडा जोगा तह गारवा य सल्ला य विगहाओ सण्णाओ खुहं कसाया पमाया य ।। Jain Education International अथ से इति तक सम्यक् परिज्ञान हो जाता है । इस अध्ययन में अनेक दार्शनिक तथा सामाजिक तथ्यों का संकलन हुआ है । आगम काल में कुछ श्रमण और ब्राह्मण मंत्र, चिकित्सा आदि का प्रयोग करते थे। भगवान् महावीर ने जैन मुनि के लिए ऐसा करने का निषेध किया है। वमन, विरेचन और धूमनेत्र – ये चिकित्सा प्रणाली के अंग हैं। आयुर्वेद में प्रचलित 'पंचकर्म' की प्रक्रिया में प्रथम दो का महत्त्वपूर्ण स्थान है और आज भी इस प्रक्रिया से चिकित्सा की जाती है। धूमनेत्र मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों का निवारण करने के लिए प्रयुक्त होता था। इसका उल्लेख दशवैकालिक ३१६ ओर सूत्रकृतांग २ ।४ ।६७ में भी हुआ है। सातवें श्लोक में अनेक विद्याओं का उल्लेख हुआ है। आजीवक आदि श्रमण इन विद्याओं का प्रयोग कर अपनी आजीविका चलाते थे। इससे लोगों में आकर्षण और विकर्षण--- दोनों होते थे। साधना भंग होती थी। भगवान् ने इस विद्या-प्रयोगों से आजीविका चलाने का निषेध किया है। नियुक्तिकार ने भिक्षु के लक्षण इस प्रकार बतलाए हैं"भिक्षु वह है जो राग-द्वेष को जीत लेता है । भिक्षु वह है जो मन, वचन और काया- इन तीनों दण्डों में सावधान रहता है 1 भिक्षु वह है जो न सावद्य कार्य करता है, न दूसरों से करवाता है और न उसका अनुमोदन करता है । भिक्षु वह है जो ऋद्धि, रस और साता का गौरव नहीं करता। भिक्षु वह है जो मायावी नहीं होता, जो निदान नहीं करता और जो सम्यग्दर्शी होता है। भिक्षु वह है जो विकथाओं से दूर रहता है। 1 भिक्षु वह है जो आहार, भय, मैथुन और परिग्रह — इन चार संज्ञाओं को जीत लेता है। भिक्षु वह है जो कषायों पर विजय पा लेता है। भिक्षु वह है जो प्रमाद से दूर रहता है। भिक्षु वह है जो कर्म-बन्धन को तोड़ने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। जो ऐसा होता है वह समस्त ग्रन्थियों का छेदन कर अजर-अमर पद को पा लेता है। एयाई तु खुहाई जे खलु भिंदंति सुव्वया रिसओ । ते भिन्नकम्मगंठी उविंति अयरामरं ठाणं ।। For Private & Personal Use Only 4 www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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