SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 579
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि ५३८ अध्ययन ३१ :श्लोक ४-६ टि०२-७ “आवुस ! गौतम! ० इस प्रकार विभक्त० इन तीन कर्मों सकता है।" में, पाप-कर्म करने के लिए० किसको महादोषी ठहराते हो- ४. (श्लोक ५) काय-कर्म को या वचन-कर्म को या मन-कर्म को ?" इस श्लोक में तीन प्रकार के उपसर्गों (कष्टों) का कथन है : “तपस्वी ! ० इस प्रकार विभक्त० इन तीनों कर्मों में (१) दिव्य-देवताओं द्वारा दिए जाने वाले कष्ट । देवता मन-कर्म को मैं० महादोषी बतलाता हूं।" हास्यवश, प्रद्वेषवश या परीक्षा के निमित्त दूसरों “आवुस ! गौतम ! मन-कर्म बतलाते हो?" को कष्ट देते हैं। “तपस्वी ! मन-कर्म बतलाता हूं।" (२) तैरश्च-पशुओं द्वारा दिए जाने वाले कष्ट । पशु “आवुस ! गौतम ! मन-कर्म बतलाते हो?" भय, प्रद्वेष या आहार के लिए तथा अपनी सन्तान “तपस्वी! मन-कर्म बतलाता हूं।" या स्थान के संरक्षण के लिए दूसरों को कष्ट देते हैं। "आवुस ! गौतम ! मन-कर्म बतलाते हो?" (३) मानुष-मनुष्यों द्वारा दिए जाने वाले कष्ट। मनुष्य "तपस्वी ! मन-कर्म बतलाता हूं।" हास्य, प्रद्वेष, विमर्श या कुशील का सेवन करने के “आवुस! गौतम ! मन-कर्म बतलाते हो?" लिए दूसरों को कष्ट देते हैं। “तपस्वी! मन-कर्म बतलाता हूं।" ५. विकथाओं (विगहा) इस प्रकार दीर्घ-तपस्वी निगंठ भगवान् को इस कथा-वस्तु यहां कथा का अर्थ 'चर्चा' या 'आलोचना' है। वर्जनीय (=विवाद विषय) में तीन बार प्रतिष्ठापित कर, आसन से उठ कथा को 'विकथा' कहा जाता है। वह चार प्रकार की हैजहां निगंठ नात-पुत्त थे, वहां चला गया।' (१) स्त्री-कथा-स्त्री सम्बन्धी कथा करना। २. गौरवों का (गारवाण) (२) भक्त-कथा-भोजन सम्बन्धी कथा करना। गौरव का अर्थ है—'अभिमान से उत्तप्त चित्त की (३) देश-कथा-देश सम्बन्धी कथा करना। अवस्था।' वह तीन प्रकार का है (४) राज-कथा-राज्य सम्बन्धी कथा करना। (१) ऋद्धि-गौरव-ऐश्वर्य का अभिमान। मूलाराधना में कथा के कुछ और अधिक प्रकार बतलाए (२) रस-गौरव-रसों का अभिमान। गए हैं-(१)भक्त-कथा, (२) स्त्री-कथा, (३) राज-कथा, (३) सात-गौरव--सुखों का अभिमान। (४) जनपद-कथा, (५) काम-कथा, (६) अर्थ-कथा, (७) नाट्य३. शल्यों का (सल्लाणं) कथा और (८) नृत्य-कथा। जैसे कांटा चुभने पर मनुष्य सर्वाङ्ग वेदना का अनुभव ६. संज्ञाओं (सन्नाणं) करता है और उसके निकल जाने पर वह सुख की सांस लेता है, वैसे ही दोष रूपी कांटा चुभ जाता है, तब साधक की संज्ञा का अर्थ है 'आसक्ति' या 'मूर्च्छना'। वह चार आत्मा दुःखित हो जाती है और उसके निकलने पर उसे प्रकार की है(१) आहार-संज्ञा (३) मैथुन-संज्ञा आनन्द का अनुभव होता है। शल्य का अर्थ है 'अन्तर में घुसा हुआ दोष' अथवा 'जिससे विकास बाधित होता है, उसे (२) भय-संज्ञा (४) परिग्रह-संज्ञा शल्य कहते हैं। ३ वे तीन हैं विशेष विवरण के लिए देखिए-स्थानांग, ४।५७८ । (१) माया-शल्य-माया-पूर्ण आचरण। ७. आर्त और रौद्र-इन दो ध्यानों का (झााणाणं च दुयं) (२) निदान-शल्य-ऐहिक या पारलौकिक उपलब्धि के ध्यान चार हैं-(१) आर्त, (२) रौद्र, (३) धर्म्य और लिए धर्म का विनिमय। (४) शुक्ल। (३) मिथ्यादर्शन-शल्य-आत्मा का मिथ्यात्वमय चार की संख्या का प्रकरण है, इसलिए यहां इनका दृष्टिकोण। उल्लेख है। किन्तु इनमें वर्जनीय ध्यान दो ही हैं, इसलिए जो निःशल्य होता है, वही व्यक्ति व्रती या महाव्रती बन 'झाणाणं च दुयं' कहा गया है। १. मज्झिमनिकाय, २।१६, पृ० २२२। २. मूलाराधना, ४।५३६-५३७ : जह कंटएण विद्धो, सव्वंगे वेदणुद्धवो होदि। तम्हि दु समुट्ठिदेसो, णिस्सल्लो णिज्बुदो होदि ।। एवमणुझुददोसो, माइल्लो तेण दुक्खिदो होइ। सो चेव वंददोसो, सुविसुद्धो णिव्युदो होइ।। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१२ : शल्यते अनेकार्थत्वाद्वाध्यते जन्तुरेभिरिति शल्यानि। ४. (क) तत्त्वार्थ, सूत्र ७।१३ : निःशल्यो व्रती। (ख) मूलाराधना, ६।१२१०: णिस्सल्लस्सेव पुणो, महब्बदाई हवंति सव्वाई। वदमुवहम्मदि तीहिं दुणिदाणमिच्छत्तमायाहिं ।। ५. मूलाराधना, ४।६५१ : भत्तित्थिराजजणवद-कंदप्पत्थउणट्टियकहाओ। वज्जित्ता बिकहाओ, अज्झप्पविराधणकरीओ।। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१३ : 'झाणाणं च' ति प्राकृतत्वाद् ध्यानयोश्च द्विकमातरौद्ररूपं तथा यो भिक्षुः 'वर्जयति' परिहरति, चतुर्विधत्वाच्च ध्यानस्यात्र प्रस्तावेऽभिधानम्। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy