SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 578
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टिप्पण अध्ययन ३१: चरण-विधि १. दण्डों का (दंडाण) दण्ड दो प्रकार के होते हैं - (१) द्रव्य-दण्ड और (२) भाव- दण्ड । कोई अपराध करने पर राजा या अन्य निर्धारित व्यक्तियों के द्वारा वध, बन्धन, ताड़ना आदि के द्वारा दण्डित करने को 'द्रव्य दण्ड' कहा जाता है। जिन अध्यवसायों या प्रवृत्तियों से आत्मा दण्डित होती है, उसे 'भाव- दण्ड' कहा जाता है। वे तीन हैं (१) मनोदण्ड – मन का दुष्प्रणिधान । (२) वचो - दण्ड - वचन की दुष्प्रयुक्तता । (३) काय दण्ड - शारीरिक दुष्प्रवृत्ति । भगवान् महावीर मन, वाणी और काया - इन तीनों को ही दण्ड मानते थे, केवल काया को नहीं। फिर भी इस विषय को लेकर मज्झिमनिकाय में एक लम्बा प्रकरण लिखा गया है। बौद्ध साहित्य की शैली के अनुसार उसमें बुद्ध का उत्कर्ष और महावीर का अपकर्ष दिखाने का प्रयत्न किया गया है। उसका कुछ अंश इस प्रकार है -- ऐसा मैंने सुना एक समय भगवान् नालन्दा में प्रावारिक में आम्र-वन में विहार करते थे। उस समय निगंठ नात पुत्त निगंठों (जैन साधुओं) की बड़ी परिषद् (= जमात) के साथ नालन्दा में विहार करते थे। तब दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ (= जैन साधु) नालन्दा भिक्षाचार कर, पिंडपात खतम कर, भोजन के पश्चात्, जहां प्रावारिक आम्र वन में भगवान् थे, वहां गया। जाकर भगवान् के साथ संमोदन ( कुशल प्रश्न पूछ) कर, एक ओर खड़ा हो गया। एक ओर खड़े दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ को भगवान् ने कहा “ तपस्वी! आसन मौजूद है, यदि इच्छा हो तो बैठ जाओ ।” ऐसा कहने पर दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ एक नीचा आसन ले एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ से भगवान् बोले Jain Education International “तपस्वी ! गौतम ! पाप कर्म के हटाने के लिए ० निगंठ नात पुत्त तीन दण्डों का विधान करते हैं-काय दण्ड, वचन-दण्ड, मन दण्ड ।” “ तपस्वी! तो क्या काय दण्ड दूसरा है, वचन - दण्ड दूसरा ही है, मन-दण्ड दूसरा है ?" “आवुस! गौतम! (हां ) ? काय दण्ड दूसरा ही है, वचन- दण्ड दूसरा ही है, मन-दण्ड दूसरा ही है।" “ तपस्वी! इस प्रकार भेद किए, इस प्रकार विभक्त, इन तीनों दण्डों में निगंठ नात पुत्त, पाप कर्म करने के लिए, पाप कर्म की प्रवृत्ति के लिए, किस दण्ड को महादोष- -युक्त विधान करते हैं। काय दण्ड को, या वचन दण्ड को, या मन दण्ड को ?" “ आवुस! गौतम ! इस प्रकार भेद किए, इस प्रकार विभक्त, इन तीनों दण्डों में निगंठ नात-पुत्त, पाप-कर्म के लिए काय - दंड को महादोष -युक्त विधान करते हैं, वैसा वचन-दंड को नहीं, वैसा मन दंड को नहीं ।" - “ तपस्वी ! काय दंड कहते हो ?" “ आवुस! गौतम ! काय - दंड कहता हूं।" “तपस्वी ! काय दंड कहते हो ?" “ आवुस! गौतम ! काय - दंड कहता हूं।" “तपस्वी ! काय - दंड कहते हो ?" “आवुस! गौतम ! काय - दंड कहता हूं।” इस प्रकार भगवान् ने दीर्घ तपस्वी निगंठ को इस कथा वस्तु ( = बात) में तीन बार प्रतिष्ठापित किया। ऐसा कहने पर दीर्घ तपस्वी निगंठ ने कहा “तुम आदुस गौतम पाप कर्म के करने के लिए० कितने दंड विधान करते हो ?" " तपस्वी ! 'दंड' 'दंड' कहना तथागत का कायदा नहीं है, 'कर्म' 'कर्म' कहना तथागत का कायदा है।" “आवुस! गौतम! तुम कितने कर्म विधान करते at?" “ तपस्वी ! मैं० तीन कर्म बतलाता हूं—जैसे काय - कर्म, वचन- कर्म, मन - कर्म ।" वचन-कर्म “ तपस्वी ! पाप कर्म के लिए, पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र कितने कर्मों का विधान करते हैं ?" “ आवुस! गौतम ! 'कर्म' 'कर्म' विधान करना निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र का कायदा (= आचिण्ण) नहीं है। आवुस! गौतम ! ‘दण्ड' ‘दण्ड' विधान करना निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र का कायदा है।” है, मन-कर्म दूसरा ही है।” “ आवुस! गौतम ! काय कर्म दूसरा ही है, दूसरा ही है, मन कर्म दूसरा ही है।” “तपस्वी ! काय-कर्म दूसरा ही है, वचन-कर्म For Private & Personal Use Only दूसरा ही www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy