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________________ उत्तरायणाणि १८. अणगारगुणेहिं च पकप्पम्मि तहेव य । जे भिक्खू जयई निच्वं से न अच्छइ मंडले ।। १६. पावसुयपसंगेसु मोहद्वाणेसु चैव य । जे भिक्खू जयई निव्वं से न अच्छइ मंडले ।। २०.सिद्धाइगुणजोगेसु तेत्तीसासायणासु य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ।। २१. इइ एएस ठाणेसु जे भिक्खू जयई सया खिप्पं से सव्वसंसारा विष्यमुच्चइ पंडिओ।। Jain Education International —त्ति बेमि । ५३६ अनगारगुणेषु च प्रकल्पे तथैव च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले ।। पाप ताप्रसंगेषु मोहस्थानेषु चैव च। यो भित स न आस्ते मण्डले ।। सिद्धादिगुणयोगेषु यरिशदाशातनासु च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले । । इत्येतेषु स्थानेषु यो भिक्षु सदा क्षिप्रं स सर्वसंसारा विप्रमुच्यते पण्डितः ।। - इति ब्रवीमि । अध्ययन ३१ : श्लोक १८ - २१ जो भिक्षु साधु के सत्ताईस गुणों और अठाईस आचार-प्रकल्पों में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। जो भिक्षु उनतीस पाप श्रुत प्रसंगों और तीस मोह के स्थानों में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। जो भिक्षु सिद्धों के इकतीस आदि गुणों, बत्तीस योग-संग्रहों तथा तेतीस आशातनाओं में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता । ८. जो पण्डित भिक्षु इस प्रकार इन स्थानों में सदा यत्न करता है, वह शीघ्र ही समस्त संसार से मुक्त हो जाता है | For Private & Personal Use Only —ऐसा मैं कहता हूं । www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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