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________________ टिप्पण अध्ययन ३२ : प्रमादस्थान १. (अच्चंतकालस्स समूलगस्स) ६. अकेला ही विहार करे (एक्को वि....विहरेज्ज) अन्त का अर्थ है 'छोर'। वस्तु के दो छोर होते हैं- सामान्य स्थिति में मुनि के लिए एकलविहार विहित नहीं आरम्भ और समाप्ति। यहां आरम्भ क्षण का ग्रहण किया गया है। स्थानांग में एकलविहार करने वाले की योग्यता का निर्देश है। इसका शब्दार्थ है-जिनका आरम्भ न हो वैसा काल है।' निर्दिष्ट योग्यता वाला मुनि ही आचार्य की अनुमति प्राप्त अर्थात् अनादि-काल। कर एकलविहार प्रतिमा को स्वीकार कर सकता है। प्रस्तुत 'समूलगस्स' का अर्थ है-मूल-सहित। दुःख का मूल श्लोक में एकलविहार प्रतिमा का प्रतिपादन नहीं है। इसमें कषाय और अविरति है। इसलिए उसे 'समूलक' अर्थात् आपवादिक स्थिति का उल्लेख है। यदि ऐसी स्थिति आ जाए कषाय-अविरति मूलक कहा गया है। कि अपने से अधिक गुणवाला और समान गुणवाला कोई मुनि २. अज्ञान और मोह का (अण्णाण मोहस्स) न मिले, उस अवस्था में मुनि अकेला रहता हुआ अपनी अज्ञान और मोह में एक आन्तरिक संबंध है। ज्ञान मोह साधना करे। के कारण ही अज्ञान बनता है। ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम वृत्तिकार का कथन है कि यह विधान गीतार्थ मुनि के ज्ञान और अज्ञान-दोनों में होता है। जिस ज्ञान के साथ लिए है। दर्शनमोह के परमाणुओं का प्रवाह मिल जाता है वह ज्ञान ७. मोह.... (मोह....) अज्ञान बन जाता है। उससे तत्त्वश्रद्धा विपरीत हो जाती है। मोह का शाब्दिक अर्थ है----मूर्छा, मूढता, चैतन्य की ज्ञान को अज्ञान बनाने वाला दर्शनमोह है। उसका विलय मोक्ष विकृति। प्रवचनसार में मोह के तीन चिन्ह बतलाए गए हैंका पहला सोपान है। (१) तत्त्व का अयथार्थ ग्रहण, (२) तिर्यञ्च और मनुष्य में होने ३. गुरु और वृद्धों की (गुरुविद्ध) वाली करुणा, (३) विषय का प्रसंग। क्रोध, मान आदि मोह के गुरु का अर्थ है 'शास्त्र को यथावत् बताने वाला'। वृद्ध प्रकार हैं। उन सबके समूह का नाम मोह है। तीन प्रकार के होते हैं (१) श्रुत-वृद्ध, (२) पर्याय-वृद्ध और ८. (श्लोक ७) (३) वयो-वृद्ध । प्रस्तुत श्लोक में जन्म और मरण को दुःख कहा गया ४. धैर्य (धिई) है। इसका सामान्य अर्थ है कि जन्म और मरण एक चक्र है। धति का अर्थ है....मन का नियमन करने वाली शक्ति। वह निरंतर चलता रहता है। उसमें अनेक दुःख भोगे जाते हैं, आयुर्वेद में यही अर्थ प्राप्त है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ चित्त इस अपेक्षा से जन्म-मरण दुःख है। की स्वस्थता, चित्त की अनुद्विघ्नता किया है। प्रस्तुत सूत्र में वृत्तिकार ने दुःख की व्याख्या को एक नया आयाम दिया निगमन है कि चित्त की स्वस्थता के बिना ज्ञान का लाभ नहीं है। उनके अनुसार जन्म और मृत्यु के क्षण दुःखद होते हैं। उन हो सकता। कहा है-'स्वस्थे चित्ते बुद्धयः प्रस्फुरन्ति' । क्षणों में प्राणी संतप्त होता है, तनाव से भर जाता है। उस तनाव ५. (श्लोक ५) के कारण अपने जन्म की स्मृति को विसार देता है। उस तनाव मिलाइए—दशवैकालिक चूलिका, २।१०। की अपेक्षा से ही जन्म और मरण को दुःख कहा गया है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२१: अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तो,....अनादिः कालो ६. बृहत्ति , पत्र ६२३ : ....तथाविधगीतार्थ यतिविषयं चैतद्, यस्य सोऽयमत्यन्तकालस्तस्य। अन्यथैकाकिविहारस्यागमे निषिद्रत्वात्। २. वही, पत्र ६२१ : सह मूलेन—कषायाविरतिरूपेण वर्त्तत इति समूलकः ७. प्रवचनसार ८५ : (कः) प्राग्वत्तस्य, उक्तं हि-“मूलं संसारस्स उ हुंति कसाया अविरती अढे अजदागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु। य।" विसएसु च पसंगो, मोहस्सेदाणि लिंगाणि ।। ३. बही, पत्र ६२२ : गुरबो-यथावच्छास्त्रभिधायका वृद्धाश्च- ८. धवला १२।४।२।८ : क्रोध मानमायालोभहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीश्रुतपर्यायादिवृद्धाः। पुनपुंसकवेदमिथ्यात्वानां समूहो मोहः । ४. वही, पत्र ६२२ : धृतिश्च चित्तस्वास्थ्यमनुद्विग्नत्यमित्यर्थः । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२४ : जातिमरणस्यैवातिशयदुःखोत्पादकत्वात्, उक्तं हि५. ठाणं, ८11 मरमाणस्स जं दुक्खं, जायमाणस्स जंतुणो। तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरति जातिमप्पणो।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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