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________________ प्रमादस्थान ५६५ अध्ययन ३२ : श्लोक १०७-१११ १०७. एवं ससंकप्पविकप्पणासो एवं स्व-संकल्प-विकल्पनाशः.. इस प्रकार जो समता को प्राप्त हो जाता है, उसके संजायई समयमुवट्ठियस्स। संजायते समतामुपस्थितस्य। संकल्प और विकल्प नष्ट हो जाते हैं। जो अर्थोंअत्थे असंकप्पयतो तओ से अर्थान् असंकल्पयतस्ततस्तस्य । इन्द्रिय-विषयों का संकल्प नहीं करता, उसके कामगुणों पहीयए कामगुणेसु तण्हा।। प्रहीयते कामगुणेषु तृष्णा।। में होने वाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती है। १०८.स वीयरागो कयसव्वकिच्चो स वीतरागः कृतसर्वकृत्यः खवेइ नाणावरणं खणेणं। क्षपयति ज्ञानावरणं क्षणेन। तहेव जं दंसणमावरेइ तथैव यत् दर्शनमावृणोति जं चंतरायं पकरेइ कम्म।। यदन्तरायं प्रकरोति कर्म।। फिर वह वीतराग सब दिशाओं में कृतकृत्य होकर क्षण भर में ज्ञानावरण को क्षीण कर देता है। उसी प्रकार जो कर्म दर्शन का आवरण करता है और जो कर्म अन्तराय (विध्न) करता है, उस दर्शनावरण और अंतराय कर्म को क्षीण कर देता है। १०६. सव्वं तओ जाणइ पासए य सर्वं ततो जानाति पश्यति च अमोहणे होइ निरंतराए। अमोहनो भवति निरन्तरायः। अणासवे झाणसमाहिजुत्ते अनाश्रवा ध्यानसमाधयुक्तः आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे ।। आयुःक्षये मोक्षमुपैति शुद्धः ।।। तत्पश्चात् वह सब कुछ जानता और देखता है तथा मोह और अन्तराय रहित हो जाता है। अन्त में वह आश्रव रहित और ध्यान के द्वारा समाधि में लीन और शुद्ध होकर आयुष्य का क्षय होते ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ११०.सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को स तस्मात् सर्वस्मात् दुःखाद् मुक्तः जो इस जीव को निरन्तर पीड़ित करता है, उस जं बाहई सययं जंतुमेयं। यद् बाधते सततं जन्तुमेनम्। अशेष दुःख और दीर्घकालीन कर्म-रोग से वह मुक्त दीहामयविप्पमुक्को पसत्थो दीर्घामयविप्रमुक्तः प्रशस्तः हो जाता है। इसलिए वह प्रशंसनीय, अत्यन्त सुखी तो होइ अच्चंतसुही कयत्थो।। ततो भवत्यत्यन्तसुखी कृतार्थः।। और कृतार्थ हो जाता है। १११.अणाइकालप्पभवस्स एसो मैंने अनादिकालीन सब दुःखों से मुक्त होने का मार्ग सव्वस्स दुक्खस्स पमोक्खमग्गो। सर्वस्य दुःखस्य प्रमोक्षमार्गः। बताया है, उसे स्वीकार कर जीव क्रमशः अत्यंत वियाहिओ जं समुविच्च सत्ता व्याख्यातः यं समुपेत्य सत्त्वाः सुखी हो जाते हैं। कमेण अच्चंतसुही भवंति।। क्रमेण अत्यन्तसुखिनो भवन्ति ।। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। ----ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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