SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 605
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि ५६४ अध्ययन ३२ : श्लोक ६८-१०६ ६८. एमेव भावम्मि गओ पओसं एवमेव भावे गतः प्रदोषम् इसी प्रकार जो भाव में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उपैति दुःखौघपरम्पराः । अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेष-युक्त चित्त पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म वाला व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है, वही जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके।। परिणाम-काल में उसके लिए दुःख का हेतु बनता ६६. भावे विरत्तो मणुओ विसोगे भावे विरक्तो मनुजो विशोकः भाव में विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे एएण दुक्खोहपरंपरेण। एतेन दुःखौघपरम्परेण । कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही न लिप्पई भवमज्झे वि संतो न लिप्यते भवमध्ये ऽपि सन् वह संसार में रह कर अनेक दुःखों की परम्परा से जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ।। जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ।। लिप्त नहीं होता। १००. एविदियत्था य मणस्स अत्था एवमिन्द्रियार्थाश्च मनसोऽर्थाः इस प्रकार इन्द्रिय और मन के विषय रागी मनुष्य दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। दुःखस्य हेतवो मनुजस्य रागिणः। के लिए दुःख के हेतु होते हैं। वे वीतराग के लिए ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं ते चैव स्तोकमपि कदापि दुःखं कभी किंचित् भी दुःखदायी नहीं होते। न वीयरागस्स करेंति किंचि।। न वीतरागस्य कुर्वन्ति किंचित् ।। १०१.न कामभोगा समयं उति न कामभोगाः समतामुपयन्ति काम-भोग समता के हेतु भी नहीं होते और विकार न यावि भोगा विगई उति। न चापि भोगा विकृतिमुपयन्ति। के हेतु भी नहीं होते। जो पुरुष उनके प्रति द्वेष या जे तप्पओसी य परिग्गही य यस्तत्प्रदोषी च परिग्रही च राग करता है, वह तद्विषयक मोह के कारण सो तेसु मोहा विगई उवेइ।। स तेषु मोहाद् विकृतिमुपैति।। विकार को प्राप्त होता है। १०२. कोहं च माणं च तहेव मायं क्रोधं च मानं च तथैव मायां जो काम-गुणों में आसक्त होता है, वह क्रोध, मान, लोहं दुगुंछ अरई रइं च।। लोभ जुगुप्सामरति रतिं च। माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, हासं भयं सोगपुमित्थिवेयं हासं भयं शोकपुंस्त्रीवेदं शोक, पुरुष-वेद, स्त्री-वेद, नपुंसक-वेद तथा हर्ष, नपुंसवेयं विविहे य भावे ।। नपुंसकवेदं विविधांश्च भावान् ।। विषाद आदि विविध भावों को१०३. आवज्जई एवमणेगरूवे आपद्यते एवमनेकरूपान् इसी प्रकार अनेक प्रकार के विकारों को और उनसे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो। एवं विधान् कामगुणेषु सक्तः ।। उत्पन्न अन्य परिणामों को प्राप्त होता है और वह अन्ने य एयप्पभवे विसेसे अन्यांश्चैतत् प्रभवान् विशेषान् करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय बन जाता कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से।। कारुण्यदीनो हीमान् द्वेष्यः।।। १०४. कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू कल्पं नेच्छेत् सहायलिप्सुः 'यह मेरी शारीरिक सेवा करेगा'—इस लिप्सा से पच्छाणुतावे य तवप्पभावं ।। पश्चात्तापश्च तपःप्रभावम् । कल्प (योग्य शिष्य) की भी इच्छा न करे। तपस्या के एवं वियारे अमियप्पयारे एवं विकारानमितप्रकारान् प्रभाव (लब्धि आदि) की इच्छा न करे और तप का आवज्जई इंदियचोरवस्से ।। आपद्यते इन्द्रियचोरवश्यः।। प्रभाव न होने पर पश्चात्ताप न करे। जो ऐसी इच्छा करता है वह इन्द्रियरूपी चोरों का वशवर्ती बना हुआ अपरिमित प्रकार के विकारों को प्राप्त होता है। १०५. तओ से जायंति पओयणाई ततस्तस्य जायन्ते प्रयोजनानि निमज्जिउं मोहमहण्णवम्मि। निमज्जितुं मोहमहार्णवे। सुहेसिणो दुक्खविणोयणट्ठा सुखैषिणो दुःखविनोदनार्थ तपच्चयं उज्जमए य रागी।। तत्प्रत्ययमुद्यच्छति च रागी।। विकारों की प्राप्ति के पश्चात् उसके समक्ष उसे मोह-महार्णव में डुबोने वाले विषय-सेवन के प्रयोजन उपस्थित होते हैं। फिर वह सुख की प्राप्ति और दुःख के विनाश के लिए अनुरक्त बनकर उन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए उद्यम करता है। जितने प्रकार के शब्द आदि इन्द्रिय-विषय हैं, वे सब विरक्त मनुष्य के मन में मनोज्ञता या अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं करते। १०६ . विरज्जमाणस्स य इंदियत्था विरज्यमानस्य चेन्द्रियार्थाः सद्दाइया तावइयप्पगारा। शब्दाद्यास्तावत्प्रकाराः। न तस्स सब्बे वि मणुण्णयं वा न तस्य सर्वेऽपि मनोज्ञतां वा निव्वत्तयंती अमणुण्णयं वा।। निर्वतयन्ति अमनोज्ञतां वा।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy