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________________ प्रमादस्थान ५६३ अध्ययन ३२ : श्लोक ८६-६७ ८६. भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं भावेषु यो गृद्धिमुपैति तीवां जो मनोज्ञ भावों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकालियं पावइ से विणासं। अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे हथिनी रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे रागातुरः कामगुणेषु गृद्धः के पथ में आकृष्ट काम-गुणों में गृद्ध बना हुआ करेणुमग्गावहिए व नागे।। करेणुमार्गापहत इव नागः।। रागातुर हाथी। ६०. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं यश्चापि दोषं समुपैति तीव्र जो मनोज्ञ भाव में तीव्र द्वेष करता है, वह अपने तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। तस्मिन् क्षणे स तूपैति दुःखम्। दुर्दम दोष से उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। दुइंतदोसेण सएण जंतू दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः भाव उसका कोई अपराध नहीं करता। न किंचि भावं अवरज्झई से।। न किंचिद् भावोऽपराध्यति तस्य ।। ६१. एगतरत्ते रुइरंसि भावे एकान्तरक्तो रुचिरे भावे जो मनोहर भाव में एकान्त अनुरक्त होता है और अतालिसे से कुणइ पओसं। अतादृशे स कुरुते प्रदोषम्।। अमनोहर भाव में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले दुःखस्य सम्पीडामुपैति वालः दुःखात्मक पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः।। मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। ६२. भावाणुगासाणुगए य जीवे भावानुगाशानुगतश्च जीवः मनोहर भाव की अभिलाषा के पीछे चलने वाला चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान्। पुरुष अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों को हिंसा चित्तेहि ते परितावेइ बाले चित्रैस्तान् परितापयति बालः करता है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिठे।। पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः।। वह क्लेश-युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को परितप्त और पीड़ित करता है। ६३. भावाणुवाएण परिग्गहेण भावानुपातेन परिग्रहेण भाव में अनुरक्त और ममत्व का भाव होने के उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। कारण मनुष्य उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार वए विओगे य कहिं सुहं से? व्यय वियोगे च क्व सुखं तस्य ? करता है। उसका व्यय और वियोग होता है। इन संभोगकाले य अतित्तिलाभे।। सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः।। सबमें उसे सुख कहां है? और क्या, उसके उपभोग-काल में भी उसे तृप्ति नहीं मिलती। ६४. भावे अतित्ते य परिग्गहे य भावे अतृप्तश्च परिग्रहे च जो भाव में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढिं। सक्तोपसक्तो नोपैति तुष्टिम् । आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दु:खी परस्य । वह असन्तुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम् ।। होकर दूसरे की वस्तुएं चुरा लेता है। ६५. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिणः वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और भावे अतित्तस्स परिग्गहे य। भावे अतृप्तश्च परिग्रहे च। भाव-परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के मायामुसं वडइ लोभदोसा मायामृषा वर्धते लोभदोषात् कारण उसके माया मृषा की वद्धि होती है। माया-मृषा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः।। का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। ६६. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य असत्य बोलेने के पश्चात्, पहले और बोलते समय पओगकाले य दुही दुरंते। प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः।। वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय एवं अदत्ताणि समाययंतो। एवमदत्तानि समाददानः होता है। इस प्रकार वह भाव में अतृप्त होकर चोरी भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।। भावे अतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः।। करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। १७. भावाणरत्तस्स नरस्स एवं भावानुरक्तस्य नरस्यैवं भाव में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानसार कदाचित कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। कुतः सुखं भवेत् कदापि किंचित् ? किंचित् सुख भी कहां से होगा ? जिस उपभोग के तत्थोवभोगे वि किलेसदक्खं तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है, उस उपभोग में भी निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। निवर्तयति यस्य कृते दुःखम् ।। क्लेश-दुःख (अतृप्ति का दुःख) बना रहता है। पात Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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