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________________ प्रमादस्थान ५६७ अध्ययन ३२ : श्लोक ८-१०४ टि० ६-१८ ९. (श्लोक ८) चक्षु और रूप-इन दोनों में ग्राह्य-ग्राहक भाव है। रूप है मोह चेतना की मूर्छा है। वह तृष्णा—प्यास, अविरति ग्राह्य और चक्षु है ग्राहक। इससे यह स्पष्ट होता है कि उत्पन्न करता है। तृष्णा लोभ-पदार्थ संग्रह की वृत्ति को राग-द्वेष की उत्पत्ति में दोनों का सहकारी भाव है। जैसे रूप उत्पन्न करती है। उससे प्रेरित व्यक्ति पदार्थ का संग्रह करता राग-द्वेष का कारण है वैसे ही चक्षु भी राग-द्वेष का कारण है। है। यह एक चक्रक है। इसको वही तोड़ सकता है जो सबसे प्रस्तुत श्लोक में मनोज्ञ के स्थान पर 'समनोज्ञ' का पहले मोह पर प्रहार करता है। मोह के टूटते ही तृष्णा टूट प्रयोग किया गया है-समणुन्नमाहु। वृत्तिकार ने इसकी जाती है। तृष्णा के टूटते ही लोभ टूट जाता है। और लोभ के अर्थ-संगति करने का प्रयास किया है। टूटते ही व्यक्ति पदार्थ-संग्रह से विरत हो जाता है, अकिंचन हो ईर्ष्या, रोष, द्वेष—ये सारे द्वेष के पर्याय हैं। जिस अमनोज्ञ जाता है। रूप के प्रति ईर्ष्या, रोष होता है वह सारा द्वेष ही है। १०. (श्लोक १०) १३. आसक्ति (गिद्धि....) इस श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्मचारी को घी, दूध, वृत्तिकार ने गृद्धि का अर्थ राग किया है तथा 'वाचक' दही आदि रसों का अतिमात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। प्रवर का एक श्लोक उद्धृत कर राग के पर्यायवाची शब्दों का यहां रस-सेवन का आत्यन्तिक निषेध नहीं है, किन्तु अतिमात्रा उल्लेख किया है। राग के पर्यायवाची ये हैं---इच्छा, मूर्छा, में उनके सेवन का निषेध है। काम, स्नेह, गार्थ्य, ममत्व, अभिनन्द, अभिलाष आदि। जैन आगम भोजन के सम्बन्ध में ब्रह्मचारी को जो १४. (मिगे) निर्देश देते हैं, उनमें दो ये हैं ‘मृग' शब्द के अनेक अर्थ हैं—पशु, मृगशीर्ष नक्षत्र, (१) वह रसों को अतिमात्रा में न खाए और हाथी की एक जाति, कुरंग आदि। यहां मृग का अर्थ 'पशु' (२) वह रसों को बार-बार या प्रतिदिन न खाए। इसका फलित यह है कि वह वायु आदि के क्षोभ का १५. औषधियों (ओसहि) निवारण करने के लिए रसों का सेवन कर सकता है। वृत्तिकार ने औषधि को 'नागदमनी' आदि औषधियों का अकारण उनका सेवन नहीं कर सकता। सूचक माना है। ___ एक मनि ने अपने प्रश्नकर्ता को यही बताया था-"में १६. भाव मन का (मणस्स भाव) अति आहार नहीं करता हूं, अतिस्निग्ध आहार से विषय कर्म के उदय अथवा क्षयोपशम से निष्पन्न चित्त की उद्दीप्त होते हैं, इसलिए उनका भी सेवन नहीं करता हूं। अवस्था का नाम है भाव। मनोवर्गणा के आलंबन से किया संयमी-जीवन की यात्रा चलाने के लिए खाता हूं, वह भी जाने वाला चित्त का व्यापार है-मन। जाने अतिमात्रा में नहीं खाता।"" १७. इन्द्रिय रूपी चोरों का (इंदिय चोर.....) दूध आदि का सर्वथा सेवन न करने से शरीर शुष्क हो जाता है, बल घटता है और ज्ञान, ध्यान या स्वाध्याय की इन्द्रियां ज्ञान के स्रोत हैं। ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण यथेष्ट प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उनका प्रतिदिन व अतिमात्रा में के क्षायोपशमिक भाव हैं। उन्हें चोर सापेक्षदृष्टि से कहा गया सेवन करने से विषय की वृद्धि होती है, इसलिए आचार्य को है। जब वे राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति में लिप्त हो जाती हैं तब मनुष्य का धर्मरूपी सर्वस्व छिन जाता है। इस अपेक्षा से उन्हें चाहिए कि वह अपने शिष्य को कभी स्निग्ध और कभी रूखा चोर कहा गया है। आहार दे। १८. विकारों को.....(वियारे....) ११. (खड्डुए) यह देशी थातु है। इसका अर्थ है-अन्त करना। ___ 'वियार' के संस्कृत रूप दो बन सकते हैं—विकार और विचार। इन्द्रियवशवर्ती मनुष्य नाना प्रकार के विकारों अथवा १२. (श्लोक २३) नाना प्रकार के विचारों को प्राप्त होता है। चक्षु रूप का ग्रहण करता है। चक्षु का विषय है रूप। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२५ : 'रसाः' क्षीरादिविकृतयः 'प्रकामम्' अत्यर्थ 'न ४. वही, पत्र ६३० : गुद्धि-गाय रागमित्यर्थः। उक्तं हि वाचकैः निषेवितव्याः' नोपभोक्तव्याः, प्रकामग्रहणं तु वातादिक्षोभनिवारणाय इच्छा मूर्छा कामः स्नेहो गाय ममत्वमभिनन्दः । रसा अपि निषेवितव्या एव, निष्कारणनिषेवणस्य तु निषेध इति ख्यापनार्थम् अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्यायवचनानि।। उक्तं च ५. वही, पत्र ६३४ : मृगः सर्वोऽपि पशुरुच्यते, युक्तम्-"मृगशीर्षे "अच्चाहारो न सहे, अतिनिद्रेण विसया उदिज्जति। हस्तिजाती, मृगः पशुकुरगयोः।" जायामायाहारो, तंपि पगाम ण भुंजामि।।" ६. वही, पत्र ६३४ : तथौषधयो-नागदमन्यादिकाः। २. वही, पत्र ६२८ : खुदति-आर्षत्वात् क्षोदयन्ति–विनाशयन्ति। ७. वही, पत्र ६३६ : इंद्रियाणि चीरा इव धर्मसर्वस्वापहरणाद् इन्द्रियचौराः। ३. वही, पत्र ६३०। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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