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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३२ : श्लोक १०७ टि० १६ १९. (श्लोक १०७)
संकल्प-विकल्प का नाश होता चला जाता है। इन्द्रियों के महावीर की साधना का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-समता, अर्थों-विषयों का संकल्प-विकल्प नहीं होता, उस अवस्था में इन्द्रियों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों के प्रति राग-द्वेष न कामगुण विषयक तृष्णा अपने आप क्षीण हो जाती है। संकल्प करने का अभ्यास। समता की साधना के बिना ध्यान भी और विकल्प तृष्णा का पोषण देते हैं। जैसे ही उनका पोषण सफल नहीं होता। ध्यानकाल में वीतराग की स्थिति का-सा बन्द होता है, तृष्णा अपने-आप प्रतनु बन जाती है। अनुभव होता है। ध्यान संपन्न करने पर इन्द्रियों के विषय वृत्तिकार ने 'समय' शब्द के दो संस्कृत रूप ओर दिए सामने आते हैं। तब राग-द्वेष के संकल्प और विकल्प उभरते हैं-'समकं'–एक साथ और 'समय'-सिद्धान्त। किन्तु ये हैं। समता की साधना जैसे-जैसे आगे बढ़ती है वैसे-वैसे यहां प्रासंगिक नहीं है।
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