________________
सम्यक्त्व-पराक्रम
४८५
अध्ययन २६ : सूत्र ७०-७३ ७०.मायाविजएणं भंते ! जीवे किं मायाविजयेन भदन्त ! भंते ! माया-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ ?
जीवः किं जनयति? मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ, मायाविजयेन ऋजुभावं माया-विजय से वह ऋजुता को उत्पन्न करता मायावेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, जनयति, मायावेदनीयं कर्म न है। वह माया-वेदनीय कर्म-बन्धन नहीं करता और
पुव्वबद्धं च निज्जरेइ।। बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति।। पूर्व-बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। ७१. लोभविजएणं भंते ! जीवे किं लोभविजयेन भदन्त ! जीवः भंते ! लोभ-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है ? जणयइ?
किं जनयति? लोभविजएणं संतोसीभावं लोभविजयेन सन्तोषीभावं लोभ-विजय से वह संतोष को उत्पन्न करता जणयइ, लोभवेयणिज्जं कम्मं जनयति, लोभवेदनीयं कर्म न है। वह लोभ-वेदनीय कर्म-बन्धन नहीं करता और
न बंधइ, पुवबद्धं च निज्जरेइ ।। बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति।। पूर्व-बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। ७२.पेज्जदोसमिच्छादसणविजएणं प्रेयोदोषमिथ्यादर्शनविजयनेन भंते ! प्रेम, द्वेष और मिथ्या-दर्शन के विजय से जीव
भंते ! जीवे किं जणयइ ? भदन्त ! जीवः किं जनयति? क्या प्राप्त करता है? पेज्जदोसमिच्छादसणविजएणं प्रेयोदोषमिथ्यादर्शनविज- प्रेम, द्वेष और मिथ्या-दर्शन के विजय से वह नाणदंसणचरित्ताराहणयाए येन ज्ञानदर्शनचरित्राराधनायां ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए अब्भुटूठेइ। अट्ठविहस्स कम्मस्स अभ्युत्तिष्ठते। अष्टविधस्य कर्मणः उद्यत होता है। आठ कर्मों में जो कर्म ग्रंथि है, उसे कम्मगंठिविमोयणयाए तप्पढ- कर्मग्रन्थिविमोचनाय तत्प्रथमतया खोलने के लिए वह उद्यत होता है। वह जिसे पहले मयाए जहाणुपुट्विं अट्ठवीसइ- यथानुपूर्वि अष्टाविंशतिविधं कभी भी पूर्णतः क्षीण नहीं कर पाया उस अट्ठाईस विहं मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ, मोहनीयं कर्मोद्घातयति। पंचविधं प्रकार वाले मोहनीय कर्म को क्रमशः सर्वथा क्षीण पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं । ज्ञानावरणीयं नवविधं दर्शनावर- करता है, फिर वह पांच प्रकार वाले ज्ञानावरणीय, दंसणावरणिज्जं पंचविहं अंत- णीयं पंचविधमन्तरायं एतान् नौ प्रकार वाले दर्शनावरणीय और पांच प्रकार वाले रायं एए तिन्नि वि कम्मंसे त्रीनपि कर्माशान युगपत् क्षपयति। अंतराय-इन तीनों विद्यमान कर्मों को एक साथ जुगवं खवेइ। तओ पच्छा ततः पश्चादनुत्तरं अनन्तं कृत्स्नं क्षीण करता है। उसके पश्चात् वह अनुत्तर, अनंत, अणूत्तरं अणंतं कसिणं पडि- प्रतिपूर्ण निरावरणं वितिमिरं कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरावरण, तिमिर रहित, विशुद्ध, पूण्णं निरावरणं वितिमिरं विशुद्ध लोकालोकप्रभावकं लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाले केवल विसुद्धं लोगालोगप्पभावगं केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पादयति। ज्ञान और केवल दर्शन को उत्पन्न करता है। जब केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेइ। यावत् सयोगी भवति तावद् च तक वह सयोगी होता है तब तक उसके जाव सजोगी भवइ ताव य ऐयापथिकं कर्म बध्नाति सुखस्पर्श ईर्या-पथिक-कर्म का बंध होता है। वह बंध सुख-स्पर्श इरियावहियं कम्मं बंधइ सह- द्विसमयस्थितिकम्। तत् प्रथम- (पुण्यमय) होता है। उसकी स्थिति दो समय की फरिसं दसमयठियं । तं समये बद्धं द्वितीयसमये वेदितं होती है। वह प्रथम समय में बंधता है. दसरे समय पढमसमए बद्धं बिइयसमए तृतीयसमये निजीणं तद् बद्धं में उसका वेदन होता है और तीसरे समय में वह वेदयं तदयसमा निजि तं स्पृष्टमुदीरितं वेदितं निर्जीर्ण निर्जीर्ण हो जाता है। वह कर्म बद्ध होता है. स्पष्ट बद्धं पटठं उदीरियं वेइयं एष्यत्काले चाकर्म चापि भवति।। होता है, उदय में आता है, भोगा जाता है, नष्ट हो निज्जिण्णं सेयाले य अकम्म
जाता है और अंत में अकर्म भी हो जाता है। चावि भवइ।। ७३.आहाउयं पालइत्ता अंतोमुहुत्त- यथायुःपालयित्वाऽन्तर्मुहू- केवली होने के पश्चात् वह शेष आयुष्य" का
द्धावसेसाउए जोगनिरोहं करे- ध्वावशेषायुष्कः योगनिरोधं निर्वाह करता है। जब अंतर्-मुहूर्त परिमाण आयु माणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइ कुर्वाण: सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति शेष रहती है, तब वह योग-निरोध करने में प्रवृत्त सुक्कज्झाणं झायमाणे तप्प- शुक्लध्यानं ध्यायन् तत्प्रथमतया होता है। उस समय सूक्ष्म-क्रिया अप्रतिपाति नामक ढमयाए मणजोगं निरुंभइ, मनोयागं निरुणद्धि, निरुध्य शुक्ल ध्यान में लीन बना हुआ वह सबसे पहले निलंभित्ता वइजोगं निरंभइ, वाग्योगं निरुणद्धि, निरुध्य मनोयोग का निरोध करता है, फिर वचन-योग का
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org