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________________ उत्तरज्झयणाणि ४८६ अध्ययन २६ : सूत्र ७४ निलंभित्ता आणापाणुनिरोहं आनापान-निरोधं करोति, कृत्वा निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान (उच्छ्वासकरेइ, करेत्ता ईसि पंचरहस्स- ईषत् पंच ह्रस्वाक्षरोच्चाराध्वनि निश्वास) का निरोध करता है। उसके पश्चात् क्खरुच्चारधाए य णं अणगारे च अनगारः समच्छिन्नक्रियं स्वल्पकाल तक च अनगारः समुच्छिन्नक्रियं स्वल्पकाल तक—पांच हस्वाक्षरों अ इ उ ऋ लु का समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टि- अनिवृत्तिशुक्लध्यानं ध्यायन् उच्चारण किया जाए उतने काल तक समुच्छिन्नक्रिया सुक्कज्झाणं झियायमाणे वेय- वेदनीयमायुष्कं नाम गोत्रञ्चैतान् अनिवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान में लीन बना हुआ णिज्ज आउयं नामं गोत्तं च चतुरः कर्माशान् युगपत् क्षपयति।। अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-इन एए चत्तारि वि कम्मसे जुगवं चारों विद्यमान कर्मों को एक साथ क्षीण करता है। खवेइ।। ७४.तओ ओरालियकम्माइं च ततः औदारिककार्मणे च उसके अनन्तर ही औदारिक और कार्मण शरीर को सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्प- सर्वाभिः विप्रहाणिभिः विप्रहाय पूर्ण अनस्तित्व के रूप में छोड़ कर वह मोक्ष स्थान जहित्ता उज्जुसेढिपत्ते अफुस- ऋजुश्रेणिप्राप्तोऽस्पृशद्गतिरूवं में पहुंच साकारोपयुक्त (ज्ञान-प्रवृत्तिकाल) में सिद्ध माणगई उड्ढं एगसमएणं एक समयेन अविग्रहेण तत्र गत्वा होता है, प्रशांत होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारो- साकारोपयुक्तः सिध्यति 'बुज्झइ' होता है और सब दुःखों का अंत करता है। सिद्ध वउत्ते सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ मुच्यते परिनिति सर्वदुःखानामन्तं होने से पूर्व वह ऋजुश्रेणी (आकाश-प्रदेशों की परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करोति।। सीधी पंक्ति) से गति करता है। उसकी गति अस्पृशद् करेइ।। (मध्यवर्ती आकाश का स्पर्श किए बिना) तथा ऊपर को होती है। वह एक समय की होती है—ऋजु होती है। एस खलु सम्मत्तपरक्कमस्स एष खलु सम्यक्त्वपराक्रम- सम्यक्त्व-पराक्रम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ अज्झयणस्स अठे समणेणं स्याध्ययनस्यार्थः श्रमणेन भगवता श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा आख्यात, प्रज्ञापित, भगवया महावीरेणं आघविए महावीरेणाख्यातः प्रज्ञापितः प्ररूपित, दर्शित और उपदर्शित है। पण्णविए परूविए दंसिए उव- प्ररूपितः दर्शितः उपदर्शितः।। दंसिए।। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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