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उत्तरज्झयणाणि
११६ अध्ययन ५ : श्लोक ३२ टि० ५४-५५ चाहिए। यह सोच वह तपोयोग में संलग्न हो जाता है। बात की पुष्टि की है। ५४. शरीर का त्याग करता है (आघायाय समुस्सय) ५५. तीनों में से किसी एक को (तिण्हमन्नयर)
शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ 'बाह्य और आंतरिक शरीर का भक्त-परिज्ञा, इंगिनी और पादोपगमन-ये अनशन के नाश करता हुआ' किया है। इस अर्थ के आधार पर इसका तीन प्रकार हैं। मुनि को इन तीनों में से किसी एक के द्वारा संस्कृत रूप—'आघातयन् समुच्छ्य म्' बनता है। इस देह-त्याग करना चाहिए। इसलिए उसके मरण के भी ये तीन चरण का वैकल्पिक अर्थ 'शरीर के विनाश का अवसर आने प्रकार के हो जाते हैं। चतुर्विध आहार तथा बाह्य और पर' भी किया गया है। यह अर्थ करने में विभक्ति का व्यत्यय आभ्यन्तर उपधि का जो यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान किया मानना पड़ा, अतः इसमें उसका संस्कृत रूप भी बदल गया, जाता है उस अनशन को भक्त-परिज्ञा कहा जाता है। इंगिनी जैसे-'आघाताय समुच्छ्रयस्य'। आचारांग (१।४।४४) वृत्ति में में अनशन करने वाला निश्चित स्थान में ही रहता है, उससे समुच्छ्रय का अर्थ 'शरीर' किया गया है। बौद्ध साहित्य में बाहर नहीं जाता। पादोपगमन में अनशन करने वाला कटे हुए समुच्छ्रय का अर्थ 'देह' मिलता है। इस श्लोक में 'आघायाय' वृक्ष की शाखा की भांति स्थिर रहता है और शरीर की शब्द 'आघायाये' के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है-ऐसा सरपेन्टियर सार-संभाल नहीं करता।' ने लिखा है और उन्होंने पिसेल का नामोल्लेख कर अपनी
१. बृहवृत्ति, पत्र २५४ : 'आघायाय' त्ति आर्षत्वात आघातयन्
संलेखनादिभिरुपक्रमणकारणः समन्ताद् घातयन्विनाशयन्, कं?—
समुच्छ्रयम्अन्तः कार्मणशरीरं बहिरौदारिकम् । २. वही, पत्र २५४ : यद्वा-'समुस्सतं' त्ति सुळ्ययात्समुच्छ्रयस्याघाताय
विनाशाय काले सम्प्राप्त इति।
३. महावस्तु, पृ० ३६६। ४. उत्तराध्ययन, पृष्ठ ३०१। ५. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २२५ ।
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