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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २० : श्लोक ६-१७
६. अणाहो मि महाराय !
नाहो मज्झ न विज्जई। अणुकंपगं सुहिं वावि
कंचि नाभिसमेमहं ।। १०.तओ सो पहसिओ राया
सेणिओ मगहाहिवो। एवं ते इड्डिमंतस्स
कहं नाहो न विज्जई ?|| ११.होमि नाहो भयंताणं!
भोगे मुंजाहि संजया!। मित्तनाईपरिवुडो
माणुस्सं खु सुदुल्लहं।। १२.अप्पणा वि अणाहो सि
सेणिया! मगहाहिवा!। अप्पणा अणाहो संतो
कहं नाहो भविस्ससि?|| १३.एवं वुत्तो नरिंदो सो
सुसंभंतो सुविम्हिओ। वयणं अस्सुयपुव्वं
साहुणा विम्हयन्निओ।। १४.अस्सा हत्थी मणुस्सा मे
पुरं अंतेउरं च मे। मुंजामि माणुसे भोगे
आणाइस्सरियं च मे।। १५.एरिसे संपयग्गम्मि
सव्वकामसमप्पिए। कहं अणाहो भवइ?
मा हु भते! मुसं वए।। १६.न तुमं जाणे अणाहस्स
अत्थं पोत्थं वा पत्थिवा।। जहा अणाहो भवई
सणाहो वा नराहिवा?।। १७.सुणेह मे महाराय !
अव्वक्खित्तेण चेयसा। जहा अणाहो भवई जहा मे य पवत्तियं ।।
अनाथोऽस्मि महाराज ! “महाराज ! मैं अनाथ हूं, मेरा कोई नाथ नहीं है। नाथो मम न विद्यते।
मुझ पर अनुकम्पा करने वाला या मित्र कोई नहीं पा अनुकम्पकं सुहृदं वापि
रहा हूं।" कंचिन्नाभिसमेम्यहम्।। ततः स प्रहसितो राजा यह सुनकर मगधाधिपति राजा श्रेणिक जोर से हंसा श्रेणिको मगधाधिपः।
और उसने कहा-“तुम ऐसे सहज सौभाग्यशाली हो एवं ते ऋद्धिमतः
फिर कोई तुम्हारा नाथ कैसे नहीं होगा ?" कथं नाथो न विद्यते?।। भवामि नाथो भदन्तानां “हे भदन्त ! मैं तुम्हारा नाथ होता हूं। संयत ! मित्र भोगान् भुङ्गश्व संयत!। और ज्ञातियों से परिवृत होकर विषयों का भोग करो। मित्रज्ञातिपरिवृतः
यह मनुष्य-जन्म बहुत दुर्लभ है।" मानुष्यं खलु सुदुर्लभम् ।। आत्मनाप्यनाथोऽसि
"हे मगध के अधिपति श्रेणिक ! तुम स्वयं अनाथ हो। श्रेणिक ! मगधाधिप!
स्वयं अनाथ होते हुए भी तुम दूसरों के नाथ कैसे आत्मनाऽनाथः सन्
होओगे?” कथं नाथो भविष्यसि?|| एवमुक्तो नरेन्द्रः सः
श्रेणिक पहले ही विस्मयान्वित बना हुआ था और सुसम्भ्रान्त सुविस्मितः। साधु के द्वारा-तू अनाथ है-ऐसा अश्रुतपूर्व-वचन वचनमश्रुतपूर्व
कहे जाने पर वह अत्यन्त व्याकुल और अत्यन्त साधुना विस्मयान्वितः।। आश्चर्यमग्न हो गया। अश्वा हस्तिनो मनुष्या मे "मेरे पास हाथी और घोड़े हैं, नगर और अन्तःपुर पुरमन्तःपुरं च मे।
है, मैं मनुष्य सम्बन्धी भोगों को भोग रहा हूं, आज्ञा भुनज्मि मानुषान् भोगान् और ऐश्वर्य मेरे पास है।" आज्ञैश्वर्यं च मे।। ईदृशे सम्पदग्रे
“जिसने मुझे सब काम-भोग समर्पित किए हैं वैसी समर्पितसर्वकामे।
उत्कृष्ट सम्पदा होते हुए मैं अनाथ कैसे हूँ ? भदंत ! कथमनाथो भवामि?
असत्य मत बोलो।" मा खलु भदन्त ! मृषा वादीत् ।। न त्वं जानीषेऽनाथस्य
"हे पार्थिव ! तू अनाथ शब्द का अर्थ और उसकी अर्थं प्रोत्था वा पार्थिव!। उत्पत्ति-मैंने तुझे अनाथ क्यों कहा इसे नहीं यथाऽनाथो भवति
जानता, इसलिए जैसे अनाथ या सनाथ होता है, वैसे सनाथो नराधिप! ?" नहीं जानता।” शृणु मे महाराज!
"महाराज ! तू अव्याकुल चित्त से सुन-जैसे कोई अव्याक्षिप्तेन चेतसा। पुरुष अनाथ होता है और जिस रूप में मैंने उसका यथाऽनाथो भवति
प्रयोग किया है।" यथा मया च प्रवर्तितम्।।
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