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________________ उत्तरज्झयणाणि ११२ अध्ययन ५ : श्लोक २३ टि० ३६, ३७ और पुण्यबंध उसका प्रासंगिक फल है। २८०-२६४ ३६. गृहस्थ-सामायिक के अंगों का (अगारि- स्थानांग में 'पोषधोपवास' और 'परिपूर्ण पोषध'—ये दो सामाइयंगाई) शब्द मिलते हैं। पोषध (पर्व दिन) में जो उपवास किया जाता है, सामायिक शब्द का अर्थ है----सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान उसे पोषधोपवास कहा जाता है। पर्व तिथियों में दिन-रात तक और सम्यक् चारित्र। उसके दो प्रकार हैं--अगारी (गृहस्थ) का आहार, शरार-सत्कार आदि का त्याग ब्रह्मचर्य पूर्वक जो धमोरा सामायिक और अनगार का सामायिक। चूर्णिकार ने ना का अगारि-सामायिक के बारह अंग बतलाएं हैं।' वे श्रावक के बारह उक्त वर्णन के आधार पर पोषध की परिभाषा इस प्रकार व्रत कहलाते हैं। बनती है-अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा आदि पर्व-तिथियों में शान्त्याचार्य ने अगारि-सामायिक के तीन अंगों का उल्लेख गृहस्थ उपवास पूर्वक चामिक आराधना करता ह, उस व्रत किया है--निःशंकभाव, स्वाध्याय और अणुव्रत। पोषध कहा जाता है। बौद्ध साहित्य में भी चतुर्दशी और पूर्णिमा विशेषावश्यक भाष्यकार ने सामायिक के चार अंग बतलाये को उपोसथ करने का वर्णन मिलता है। शान्त्याचार्य ने आसनेन का एक श्लोक उद्धृत किया है। उसमें भी अष्टमी और (१) सम्यक् दृष्टि सामायिक। पूर्णिमा का पोषध करने का विधान है।" 'पोसह' शब्द का मूल (२) श्रुत सामायिक। 'उपवसथ' होना चाहिये। 'पोसह' का संस्कृत रूप पोषथ किया (३) देशव्रत (अणुव्रत) सामायिक। जाता है और उसकी व्युत्पत्ति की जाती है-पोषध अर्थात् धर्म (४) सर्वव्रत (महाव्रत) सामायिक। की पुष्टि को धारण करने वाला। यह इस भावना को अभिव्यक्त इनमें प्रथम तीन अगारि-सामायिक के अंग हो सकते हैं। नहीं करती। ३७. पोषध को (पोसह) चतुर्दशी आदि पर्व-तिथियों को उपवास करने का विधान इसे श्वेताम्बर साहित्य में 'पोषध' या 'प्रोषध' (उत्तराध्ययन है, इसलिये वे तिथियां भी 'उपोस्थि' कहलाती हैं। और उन तिथियों में की जाने वाली उपवास आदि धर्माराधना को भी चूर्णि पृ० १३६), दिगम्बर साहित्य में 'प्रोषध' और बौद्ध साहित्य में 'उपोसथ' कहा जाता है। यह श्रावक के बारह व्रतों में उपोसथ कहा जाता है। उपोसथ के उकार का अन्तर्धान और ग्यारहवां व्रत है। इसमें असन, पान, खाद्य, स्वाद्य का तथा 'थ' को 'ह' करने पर उपोसथ का 'पोसह' रूप भी हो सकता मणि, सुवर्ण, माला, उबटन, विलेपन, शस्त्र-प्रयोग का प्रत्याख्यान बौद्ध-सम्मत उपोसथ तीन प्रकार का होता है-- और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। इसकी आराधना (१) गोपाल-उपोसथ (२) निर्ग्रन्थ-उपोसथ (३) आर्य-उपोसथ। अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या-इन पर्व-तिथियों में की जाती है। शंख श्रावक के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि अशन, (१) गोपाल-उपोसथ पान आदि का त्याग किए बिना भी पोषध किया जाता था। जैसे ग्वाला मालिकों को गाएं सौंपकर यह सोचता है कि वसुनन्दि श्रावकाचार में प्रोषध के तीन प्रकार आज गायों ने अमुक-अमुक जगह चराई की, कल अमुक-अमुक बतलाए गये हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य । उत्तम प्रोषध में जगह चरेंगी। उसी प्रकार उपोसथ व्रती ऐसा सोचता है कि आज चतुर्विध आहार और मध्यम प्रोषध में जल छोड़कर त्रिविध मैंने यह खाया, कल क्या खाऊंगा आदि। वह लोभयुक्त चित्त से आहार का प्रत्याख्यान किया जाता है। आयंबिल (आचाम्ल), दिन गुजार देता है, यह गोपाल-उपसथ-व्रत है। इसका न महान् निर्विकृति, एकस्थान और एकभक्त को जघन्य प्रोषध कहा जाता फल होता है, न महान् परिणाम होता है, न महान प्रकाश होता है। विशेष जानकारी के लिए देखें-वसुनन्दि श्रावकाचार श्लोक है और न महान् विस्तार।" १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३९ : अगारमस्यास्तीति अगारी, ७. ठाणं, ४३६२। अगारसामाइयरस वा अंगाणि आगारिसामाईयंगाणि, समय एव सामाइयं, ८. ठाणं, ४३६२, वृत्ति, पत्र २२५ : उद्दिष्टेत्यमावास्या परिपूर्णमिति अङ्ग्यतेऽनेनेति अंगं तस्स अंगाणि बारसविधो सावगधम्मो, अहोरात्रं यावत् आहारशरीरसत्कारत्यागब्रह्मचर्याव्यापारलक्षणभेदोपेतम् । तान्यगारसामाइयंगाणि, अगारिसामाइस्स वा अंगाणि।। बृहवृत्ति, पत्र ३१५ : पोषं-धर्मपुष्टि धत्त इति पोषधः--अष्टम्यादितिथिषु बृहद्वृत्ति, पत्र २५१ : अगारिणो---गृहिणः सामायिकं सम्यक्त्वश्रुतदेश- व्रतविशेषः। विरतिरूप तस्याङ्गानि निःशंकताकालाध्ययनाणुव्रतादिरूपाणि अगारि- १०. विशुद्धिमार्ग, पृ० २७३। सामायिकाङ्गानि। ११. बृहवृत्ति, पत्र ३१५ : आह आसनेन:३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ११६६ : सम्मसुयदेससव्ववयाण सामाइयाण 'सर्वेष्वपि तपोयोगः प्रशस्तः कालपर्वसु। मेक्कंपि। अष्टम्यां पंचदश्यां च, नियतं पोषधं वसेद् ।।' ४. भगवई, १२।६। १२. मज्झिमनिकाय, पृ०४५६। ५. ठाणं, ४३६२। १३. वही, पृ०३३८ । ६. भगवई, १२।६। १४. अंगुत्तर निकाय, भा० १ पृ० २१२ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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