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________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन १ : श्लोक ६-१६ ६. अणुसासिओ न कुप्पेज्जा अनुशिष्टो न कुप्येत् पण्डित भिक्षु गुरु के द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध खंतिं सेविज्ज पण्डिए। क्षांति सेवेत पण्डितः। न करे, क्षमा की आराधना करे। क्षुद्र व्यक्तियों के खुड्डेहिं सह संसग्गिं क्षुद्रैः सह संसर्ग साथ संसर्ग, हास्य और क्रीड़ा न करे। हासं कीडं च वज्जए।। हासं क्रीडां च वर्जयेत्। १०.मा य चण्डालियं कासी मा च चाण्डालिकं कार्षी भिक्षु चण्डालोचित कर्म (क्रूर-व्यवहार) न करे। बहुयं मा य आलवे। बहुकं मा चालपेत बहुत न बोले। स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करे कालेण य अहिज्जित्ता कालेन चाधीत्य और उसके पश्चात् अकेला ध्यान करे। तओ झाएज्ज एगगो।। ततो ध्यायेदेककः ।। ११.आहच्च' चण्डालियं कटु 'आहच्च' चाण्डालिकं कृत्वा भिक्षु सहसा चण्डालोचित कर्म कर उसे कभी भी न न निण्हविज्ज कयाइ वि। न निन्हुवीत कदाचिदपि। छिपाए। अकरणीय किया हो तो ‘किया' और नहीं कडं कडे त्ति भासेज्जा कृतं कृतमिति भाषेत किया हो तो 'न किया' कहे। अकडं नो कडे ति य।। अकृतं नो कृतमिति च।। १२.मा गलियस्से व कसं मा गल्यश्व इव कशं जैसे अविनीत घोड़ा२२ चाबुक को बार-बार चाहता है, वयणमिच्छे पुणो-पुणो। वचनमिच्छेद् पुनः पुनः। वैसे विनीत शिष्य गुरु के वचन (आदेश-उपदेश) को कसं व ठुमाइण्णे कशमिव दृष्ट्वा आकीर्णः बार-बार न चाहे। जैसे विनीत घोड़ा चाबुक को पावगं परिवज्जए।। पापकं परिवर्जयेत्।। देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत शिष्य गुरु के इंगित और आकार को देखकर अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ दे। १३.अणासवा थूलवया कुसीला अनाश्रवाः स्थूलवचसः कुशीलाः आज्ञा को न मानने वाले और अंट-संट बोलने वाले मिउं पि चण्डं पकरेंति सीसा। मृदुमपि चण्डं प्रकुर्वन्ति शिष्याः। कुशील शिष्य कोमल स्वभाव वाले गुरु को भी क्रोधी चित्ताणुया लहुदक्खोववेया चित्तानुगा लघुदाक्ष्योपेताः बना देते हैं। चित्त के अनुसार चलने वाले और पसायए ते हु दुरासयं पि।। प्रसादयेयुस्ते 'हु' दुराशयमपि।। पटुता से कार्य को सम्पन्न करने वाले शिष्य दुराशय५ गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं। १४.नापुट्ठो वागरे किंचि नापृष्टो व्यागृणीयात् किञ्चित् बिना पूछे कुछ भी न बोले। पूछने पर असत्य न पुट्ठो वा नालियं वए। पृष्टो वा नालीकं वदेत्। बोले। क्रोध आ जाए तो उसे विफल कर दे। प्रिय कोहं असच्चं कुब्वेज्जा क्रोधमसत्यं कुर्वीत और अप्रिय को धारण करे-राग और द्वेष न धारेज्जा पियमप्पियं ।। धारयेत् प्रियमप्रियम्।। करे। १५.अप्पा चेव दमेयव्वो आत्मा चैव दान्तव्यः आत्मा का ही दमन करना चाहिए, क्योंकि आत्मा अप्पा हु खलु दुद्दमो। आत्मा 'हु' खलु दुदर्मः। ही दुर्दम है। दमित आत्मा ही इहलोक और परलोक अप्पा दन्तो सुही होइ आत्मा दान्तः सुखी भवति में सुखी होता है। अस्सिं लोए परत्थ य।। अस्मिल्लोके परत्र च।। १६.वरं मे अप्पा दन्तो वरं मम आत्मा दान्तः अच्छा यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा संजमेण तवेण य। संयमेन तपसा च। अपनी आत्मा का दमन करूं। दूसरे लोग बंधन माहं परेहि दम्मन्तो माहं परैर्दम्यमानः और वध के द्वारा मेरा दमन करें-यह अच्छा नहीं बन्धणेहि वहेहि य।। बन्धनैर्वधैश्च।। बना दत १. बृहद्वृत्ति (पत्र ८) में इसका संस्कृत रूप 'आहृत्य' और अर्थ कदाचित् किया गया है। चूर्णि (पृ. २६) में कदाचित् और सहसा-दो अर्थ प्राप्त हैं। पिशेल ने इसे अर्धमागधी का शब्द मानकर संस्कृत रूप में 'अहत्य' दिया है। देशीनाममाला (१६२) में इसका अर्थ 'अत्यर्थ' मिलता है। शौरसेनी में यह शब्द 'आहणिअ' के रूप में मिलता है। प्रस्तुत प्रकरण में 'सहसा' अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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