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अध्ययन १ : श्लोक १७-२५
लोगों के समक्ष या एकान्त में, वचन से या कर्म से, कभी भी आचार्य के प्रतिकूल वर्तन न करे।
आचार्यों के२ बराबर न बैठे। आगे और पीछे भी न बैठे। उनके ऊरु से अपना ऊरु सटाकर न बैठे। बिछौने पर बैठे-बैठे ही उनके आदेश को स्वीकार न करे, किन्तु उसे छोड़कर स्वीकार करे।२३ संयमी मुनि गुरु के समीप पलथी लगाकर (घुटनों
और जंघाओं के चारों ओर वस्त्र बांधकर) न बैठे। पक्ष-पिण्ड कर (दोनों हाथों से घुटनों और साथल को बांधकर) तथा पैरों को फैलाकर न बैठे। आचार्यों के द्वारा बुलाए जाने पर किसी भी अवस्था में मौन न रहे। गुरु के प्रसाद को चाहने वाला मोक्षाभिलाषी शिष्य सदा उनके समीप रहे।
विनयश्रुत १७.पडिणीयं च बुद्धाणं
वाया अदुव कम्मुणा। आवी वा जइ वा रहस्से
नेव कुज्जा कयाइ वि।। १८.न पक्खओ न पुरओ
नेव किच्चाण पिट्ठओ न जुंजे ऊरुणा ऊरुं
सयणे नो पडिस्सुणे।। १६.नेव पल्हत्थियं कुज्जा
पक्खपिण्डं व संजए। पाए पसारिए वावि
न चिठे गुरुणन्तिए।। २०.आयरिएहिं वाहिन्तो
तुसिणीओ न कयाइ वि। पसायपेही नियागट्ठी
उवचिठे गुरुं सया।। २१.आलवंते लवंते वा
न निसीएज्ज कयाइ वि। चइऊणमासणं धीरो
जओ जत्तं पडिस्सुणे।। २२.आसणगओ न पुच्छेज्जा
नेव सेज्जागओ कया। आगम्मुक्कुडुओ संतो
पुच्छेज्जा पंजलीउडो।। २३.एवं विणयजुत्तस्स
सुत्तं अत्थं च तदुभयं । पुच्छमाणस्स सीसस्स
वागरेज्ज जहासुयं ।। २४.मुसं परिहरे भिक्खू
न य ओहारिणिं वए। भासादोसं परिहरे
मायं च वज्जए सया।। २५.न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं
न निरठें न मम्मयं। अप्पणट्ठा परट्ठा वा उभयस्संतरेण वा।।
प्रत्यनीकत्वं च बुद्धानां वाचा अथवा कर्मणा। आविर्वा यदि वा रहस्ये नैव कुर्यात् कदाचिदपि।। न पक्षतो न पुरतः नैव कृत्यानां पृष्ठतः। न युञ्ज्याद् ऊरुणोरु शयने नो प्रतिशृणुयात्।। नैव पर्यस्तिकां कुर्यात् पक्षपिण्डं वा संयतः। पादौ प्रसार्य्य वापि न तिष्ठेद् गुरूणामन्तिके।। आचार्यैाहृतः तूष्णीको न कदाचिदपि। प्रसादप्रेक्षी नियागार्थी उपतिष्ठेत गुरुं सदा।। आलपन् लपन् वा न निषीदेत् कदाचिदपि। त्यक्त्या आसनं धीरः यतो यत्नं प्रतिशृणुयात्।। आसनगतो न पृच्छेत् नैव शय्यागतः कदा। आगम्योत्कुटुकः सन् पृच्छेत् प्रांजलिपुटः।। एवं विनययुक्तस्य सूत्रमर्थं च तदुभयम्। पृच्छतः शिष्यस्य व्यागृणीयाद् यथाश्रुतम्।। मृषा परिहरेद् भिक्षुः न चावधारिणीं वदेत्। भाषादोषं परिहरेत् मायां च वर्जयेत् सदा।। न लपेत् पृष्टः सावा न निरर्थं न मर्मकम्। आत्मार्थ परार्थ वा उभयस्यान्तरेण वा।।
धृतिमान् शिष्य गुरु के साथ आलाप करते और प्रश्न पूछते समय कभी भी बैठा न रहे, किन्तु वे जो आदेश दें, उसे आसन को छोड़कर संयतमुद्रा में यत्नपूर्वक स्वीकार करे। आसन पर अथवा शय्या पर बैठा-बैठा कभी भी गुरु से कोई बात न पूछे। उनके समीप आकर ऊकडू बैठ, हाथ जोड़कर पूछे।
इस प्रकार जो शिष्य विनय-युक्त हो, उसके पूछने पर गुरु सूत्र, अर्थ और तदुभय' (सूत्र और अर्थ दोनों) जैसे सुने हों, जाने हुए हों, वैसे बताए।
भिक्षु असत्य का परिहार करे। निश्चयकारिणी भाषा न बोले। भाषा के दोषों को छोडे । माया का सदा वर्जन करे।
किसी के पूछने पर भी अपने, पराए या दोनों के प्रयोजन के लिए अथवा अकारण ही २ सावद्य न बोले, निरर्थक न बोले और मर्मभेदी वचन" न बोले।
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