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________________ असंस्कृत ८३ अध्ययन ४ : श्लोक ८-१३ ८. छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं छन्दनिरोधेनोपैति मोक्षं शिक्षित (शिक्षक के अधीन रहा हुआ) और तनुत्राणधारी आसे जहा सिक्खियवम्मधारी। अश्वो यथा शिक्षितवर्मधारी। अश्व जैसे रण का पार पा जाता है, वैसे ही पुवाई वासाई चरप्पमत्तो पूर्वाणि वर्षाणि चरति अप्रमत्तः । स्वच्छन्दता का निरोध करने वाला मुनि संसार का तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ।। तस्मान्मुनिः क्षिप्रमुपैति मोक्षम् ।। पार पा जाता है। पूर्व जीवन में जो अप्रमत्त होकर विचरण करता है, वह उस अप्रमत्त-विहार से शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होता है। ६. स पुन्वमेवं न लभेज्ज पच्छा स पूर्वमेव न लभेत पश्चात् जो पूर्व जीवन में२२ अप्रमत्त नहीं होता, वह पिछले एसोवमा सासयवाइयाणं। एषोपमा शाश्वतवादिकानाम् । जीवन में भी अप्रमाद को नहीं पा सकता। "पिछले विसीयई सिढिले आउयंमि विषीदति शिथिले आयुषि जीवन में अप्रमत्त हो जाएंगे"—ऐसा निश्चय-वचन कालोवणीए सरीरस्स भेए।। कालोपनीते शरीरस्य भेदे।। शाश्वतवादियों के लिए ही२३ उचित हो सकता है। पूर्व जीवन में प्रमत्त रहने वाला आयु के शिथिल होने पर, मृत्यु के द्वारा शरीरभेद के क्षण उपस्थित होने पर विषाद को प्राप्त होता है। १०.खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं क्षिप्रं न शक्नोति विवेकमेतुं कोई भी मनुष्य विवेक को तत्काल प्राप्त नहीं कर तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे। तस्मात्समुत्थाय प्रहाय कामान्। सकता। इसलिए हे मोक्ष की एषणा करने वाले समिच्च लोयं समया महेसी समेत्य लोक समतया महैषी महर्षि ! तुम उत्थित बनो–“जीवन के अंतिम भाग अप्पाणरक्खी चरमप्पमत्तो।। आत्मरक्षी चरति अप्रमत्तः।। में अप्रमत्त बनेंगे"-इस आलस्य को त्यागो। काम-भोगों को छोड़ो। लोक को भलीभांति जानो। समभाव में रमण तथा आत्म-रक्षक और अप्रमत्त होकर विचरण करो। ११.मुहं मुहं मोहगुणे जयंतं मुहुर्मुहुर्मोहगुणान् जयन्तं बार-बार मोहगुणों२८ पर विजय पाने का यत्न करने अणेगरूवा समणं चरंतं। अनेकरूपाः श्रमणं चरन्तम्। वाले उग्र-विहारी श्रमण को अनेक प्रकार के फासा फुसंती असमंजसं च स्पर्शा स्पृशन्त्यसमजसं च प्रतिकूल ६ स्पर्श पीड़ित करते हैं,३० असंतुलन पैदा न तेसु भिक्खू मणसा पउस्से।। न तेषु भिक्षुर्मनसा प्रद्विष्यात् ।। करते हैं। किन्तु वह उन पर मन से भी प्रद्वेष न करे। १२.मंदाय फासा बहुलोहणिज्जा मन्दाः स्पर्शा बहुलोभनीयाः कोमल—अनुकूल स्पर्श' बहुत लुभावने होते हैं। तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा। तथाप्रकारेषु मनो न कुर्यात्। वैसे स्पशों में मन को न लगाये। क्रोध का निवारण रक्खेज्ज कोहं विणएज्ज माणं रक्षेत् क्रोधं विनयेद् मानं करे। मान को दूर करे। माया का सेवन न करे। मायं न सेवे पयहेज्ज लोहं।। मायां न सेवेत प्रजह्याल्लोभम् ।। लोभ को त्यागे। १३.जे संखया तुच्छ परप्पवाई ये संस्कृताः तुच्छाः परप्रवादिनः जो अन्यतीर्थिक लोग “जीवन सांधा जा सकता ते पिज्जदोसाणुगया परज्झा। ते प्रेयोदोषानुगताः पराधीनाः। है"३३--ऐसा कहते हैं वे अशिक्षित हैं,३. प्रेय और एए अहम्मे त्ति दुगुंछमाणो एते अधर्माः इति जुगुप्समानः द्वेष में फंसे हुए हैं, परतन्त्र हैं।३५ “वे धर्म-रहित कंखे गुणे जाव सरीरभेओ।। काक्षेद् गुणान् यावच्छरीरभेदः।। हैं”—ऐसा सोच उनसे दूर रहे।६ अन्तिम सांस तक३७ (सम्यक्-दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि) गुणों की आराधना करे। —त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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