SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाचारी ४२९ अध्ययन २६ : श्लोक ३५-५१ टि० २२-२८ ऐसा कहा गया है। २३. प्रदेश तक (विहारं) (१) आतंक-ज्वर आदि आकस्मिक रोग हो जाने पर। शान्त्याचार्य ने विहार का अर्थ “प्रदेश' किया है। (२) राजा आदि का उपसर्ग हो जाने पर। व्यवहार-भाष्य की वृत्ति में विहार-भूमि का अर्थ 'भिक्षा-भूमि' (३) ब्रह्मचर्य की तितिक्षा–सुरक्षा के लिए। मिलता है। 'विहारं विहारए'—इसका अर्थ है-'भिक्षा के (४) प्राणि-दया के लिए। निमित्त पर्यटन करे।' (५) तपस्या के लिए। २४. सर्व भावों को प्रकाशित करने वाला (सव्वभावविभावणं) (६) शरीर का व्युत्सर्ग करने के लिए। स्वाध्याय से इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रिगम्य-दोनों विषयों मुनि शरीर के व्युच्छेद की आकांक्षा या मृत्यु की कामना का बोध मिलता है। इसलिए उसे 'सर्वभावविभावन'-जीव उसी स्थिति में करता है जब वह यह जान लेता कि उसका आदि सभी तत्त्वों को प्रकाशित करने वाला--किया है। आत्मा, शरीर और इन्द्रियां क्षीण हो रही हैं और वह अब ज्ञान, दर्शन धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य अमूर्त हैं। इन्द्रियज्ञानी उन्हें नहीं जान तथा चारित्र की पर्यायों के विकास में समर्थ नहीं है। वह सबसे सकता। आगमों का स्वाध्याय करने वाला उन अतीन्द्रिय द्रव्यों पहले संलेखना करता है--विविध तपस्याओं से अपने शरीर को भी जान लेता है। नंदी सूत्र में श्रुतज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और कषायों को क्षीण करता है और अन्त में अनशन करता कहा गया है। है। समाधि मरण के लिए मृत्यु की आकांक्षा काम्य है। २५. देवसिक (दसिय) २२. सब भाण्डोपकरणों को ग्रहण कर (अवसेसं भंडगं यहां 'वकार' का लोप किया गया है। इसका संस्कृत रूप गिज्झा) है—दैवसिक और अर्थ है—दिन से संबंधित । मुनि जब भिक्षा के लिए जाए तब अपने सब उपकरणों २५. स्तुति मगल (युलमगल) को साथ ले जाए-यह 'औत्सर्गिक विधि' है। यदि सब स्तुतिमंगल का अर्थ है-सिद्धों का स्तवन। उपकरणों को साथ ले जाने में असमर्थ हो तो आचार-भण्डक देखें-श्लोक ५१ का टिप्पण। लेकर जाए-यह 'आपवादिक विधि' है। २७. कौन सा तप ग्रहण करूं (किं तब पडिवज्जामि) निम्नलिखित छह आचार-भण्डक कहलाते हैं कायोत्सर्ग में स्थिति मुनि सोचे कि मैं कौनसा तप ग्रहण (१) पात्र करूं ? भगवान् वर्द्धमान ने छह मास की तपस्या की। क्या मै। (२) पटल भी इतनी दीर्घ तपस्या करने में समर्थ हूं अथवा नहीं ? यह (३) रजोहरण सोचते-सोचते एक-एक दिन करते-करते अन्त में उस स्थिति (४) दण्डक तक पहुंच जाए कि मैं कम से कम एक प्रहर या एक (५) दो कल्प–एक ऊनी और एक सूती पछेवड़ी नवकारसी का तप तो अवश्य ही करूं। (६) मात्रका . २८. सिद्धों का संस्तव (सिद्धाण संथव) इस श्लोक का नियुक्ति व भाष्य-काल में जो अर्थ था प्रतिक्रमण की परिसमाप्ति पर तीन बार णमोत्थुणं' वह टीका-काल में बदल गया। कहने की विधि है। वृत्तिकार ने 'स्तुतित्रय' का उल्लेख किया शान्त्याचार्य ने अवशेष का अर्थ केवल 'पात्रोपकरण' है। प्रचलित विधि में पहली स्तुति सिद्ध की, दूसरी अर्हत् की किया है। वैकल्पिक रूप में अवशेष का अर्थ 'समस्त उपकरण' और तीसरी आचार्य की की जाती है। श्रीमज्जयाचार्य ने भी भी किया है किन्तु उन्हें भिक्षा में साथ ले जाना चाहिए, इसकी आचार्य की स्तुति को मान्य किया है। मुख्य रूप से चर्चा नहीं की है। १. मिलाइए-ठाणं ६४२, ओघनियुक्तिभाष्य, गाथा २६३, २६४। २. ओघनियुक्तिभाष्य, गाथा २२७ और वृत्ति : सव्योवगरणमाया, असहू आयारभडगेण सह। तत्रोत्सर्गतः सर्वमुपकरणमादाय भिक्षागवेषणां करोति, अथासी सर्वेण गृहीतेन भिक्षामटितुमसमर्थस्तत आचारभण्डकेन समं, आचारभण्डक- पात्रकं पटलानि रजोहरणं दण्डकः कल्पद्वयं-और्णिकः क्षीमिकश्च मात्रकं च, एतद्गृहीत्वा याति। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४४ : 'अवशेष' भिक्षाप्रक्रमात्पात्रनियोंगोद्धरित, च । शब्दस्य गम्यमानत्वादवशेषं च पात्रनिर्योगमेव, यद्वाऽपगतं शेषमपेशषं, कोऽर्थः?-समस्तं, भाण्डकम् उपकरणं 'गिज्झ' ति गृहीत्वा चक्षुषा प्रत्युपेक्षेत, उपलक्षणत्वात्प्रतिलेखयेच्च, इह च विशेषत इति गम्यते, सामान्यतो प्रत्युपेक्षितस्य ग्रहणमपि न युज्यत एव यतीनाम्, उपलक्षणत्वाच्चास्य तदादाय। ४... बृहवृत्ति, पत्र ५४४ : विहरन्त्यस्मिन् प्रदेश इति विहारस्तम् । ५.. व्यवहारभाष्य, ४।४० और वृत्ति : महती वियारभूमी, विहारभूमी य सुलभवित्ती य। सुलभा वसही य जहिं, जहण्णय वासखेत्तं तु।। -यत्र च महती विहारभूमिर्भिक्षानिमित्तं परिभ्रमणभूमिः....। ६. नंदी, सूत्र १२७ : दवओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाई जाणइ पासइ। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy