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________________ उत्तरज्झयणाणि ४३६ अध्ययन २७ : श्लोक-१५ टि० १५-२२ उल्लेख हेमचन्द्राचार्य ने प्राकृत-व्याकरण (४।३८७) में किया इस पाठ का समर्थन किया है। डॉ० पिशेल ने जेकोबी के मत है। पिशल ने 'सेल्लु' का अर्थ हल किया है। सरपेन्टियर ने को भामक कहा है। नेमिचन्द्र इसका संस्कृत रूप 'अनुशास्मि' देते इस अर्थ के आधार पर यह अनुमान किया है कि यह हल का हैं। शान्त्याचार्य ने इसके संस्कृत रूप दो माने हैं—अनुशास्ति कोई भाग होना चाहिए।' देशीनाममाला में 'सेल्लु' के दो अर्थ और अनुशास्मि । 'अनुशास्ति' रूप प्रकरण संगत लगता है। किए हैं-(१) मृगशिशु और (२) बाण। १९. द्वेष ही (दोसमेव) १५. (श्लोक ९) 'दोस' शब्द के दो अर्थ होते हैं-द्वेष और दोष । चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक में तीन गौरवों का उल्लेख है। गौरव का 'दोस' का अर्थ 'दोष तथा वृत्तिकार ने 'अपराध' किया है।२ अर्थ है-अभिमान से उत्तप्त चित्त की अवस्था। वृत्तिकार ने २०. (पलिउंचंति) इनका विस्तृत वर्णन किया है। ऐश्वर्य या ऋद्धि का अहं करने इसका तात्पर्यार्थ समझाते हुए शान्त्याचार्य ने लिखा है वाला शिष्य सोचता है-अनेक धनाढ्य व्यक्ति मेरे श्रावक हैं। कि आदेश के अनुसार कार्य न होने पर गुरु अपने शिष्य को वे मुझे यथेष्ट उपकरण आदि लाकर देते हैं। मेरे समान इसका कारण पूछते हैं तब शिष्य कहता है—“आपने हमें इस सौभाग्शाली दूसरा कौन है ? यह सोचकर वह गुरु की सेवा-शुश्रूषा कार्य के लिए कब कहा था ?" अथवा वह यों कह देता हैमें प्रवर्तित नहीं होता। रस गौरव का अर्थ है-जीभ का “हम वहां गए थे परन्त वह वहां नहीं मिली।" यह अपलाप लोलप। ररा-लोलुप शिष्य बाल, ग्लान आदि को उपयुक्त करना है। डॉ० हरमन जेकोबी ने इस अर्थ को मान्य नहीं आहार आदि नहीं देता। वह स्वयं तपस्या भी नहीं करता। किया है। उनके अनुसार इसका अर्थ है 'आदेशानुसार कार्य सात-गौरव व्यक्ति निरंतर सुख-सुविधाओं में प्रतिवद्ध रहता नहीं किया। मूल धातु को देखते हुए परिकुंच का अर्थ है। वह अप्रतिबद्ध विहारी नहीं हो सकता। उसे सुख-सुविधा मायापूर्ण प्रयोग या अपलाप ही होना चाहिए। से वंचित हो जाने का भय बना रहता है। २१. राजा की बेगार (रायवेट्ठि) १६. (श्लोक १०) रायवेट्ठि' का अर्थ है 'राजा की बेगार'। राजस्थान में डॉ० हरमन जेकोबी ने इस श्लोक के विषय में यह इसे 'बेट' कहते हैं। (विट्टि बेट्टि बेठ) यह देशी शब्द है। अनुमान किया है कि मूलतः यह श्लोक 'आर्या' छन्द में था देशीनाममाला में इसका अर्थ 'प्रेषण' किया है। उपदेशरत्नाकर परन्तु कालान्तर में इसे 'अनुष्टुप् छन्द' में बदलने का प्रयत्न (६।११) में इसका अर्थ 'बेगार' किया है। प्राचीन समय में यह किया गया। टीकाओं में इस विषयक कोई उल्लेख नहीं है। परम्परा थी कि राजा या जमींदार गांव के प्रत्येक व्यक्ति से १७. अपमान-भीरू (ओमाणभीरुए) बिना पारिश्रमिक दिए ही काम कराते थे। बारी-बारी से इसका तात्पर्य है कि जिस किसी के घर में वह भिक्षा के सबको कार्य करना पड़ता था। इसी की ओर यह शब्द संकेत लिए नहीं जाता क्योंकि उसे प्रतिपल अपमानित होने का भय करता है। डॉ० हरमन जेकोबी "विट्टि' का अर्थ 'भाडा'रहता है। शान्त्याचार्य ने 'ओमाणभीरुए' का वैकल्पिक अर्थ 'किराया' करते हैं। किन्तु यहां यह उपयुक्त नहीं है। 'प्रवेश-भीरु' किया है। ओमाण एक अर्थ अलाभ भी किया २२. खिन्न होकर (समागओ) जा सकता है। 'समागओ' के अर्थ में नेमिचन्द्र का मत शान्त्याचार्य से १८. अनुशासित करते हैं (अणुसासम्मी) भिन्न है। शान्त्याचार्य ने समागत का अर्थ 'श्रभागत' (श्रम-प्राप्त) कई प्रतियों में 'अणुससम्मि' पाठ मिलता है। जेकोबी ने किया है। और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ 'संयुक्त' किया है। 9. The Uttaradhyayana Sutra. 373. २. देशीनाममाला, ८५७ : मिगसिसुसरेसु सेल्लो। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५२। ४. The sacred Book of the East, Vol. XLV Utaradhyayana, p. ISI Foot note I ५. सुखबोधा, पत्र ३१७ : अपमानभीरुः भिक्षां भ्रमन्नपि न यस्य तस्यैव गृहे प्रवेष्टुमिच्छति। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५२ : 'ओमाणं' ति प्रवेशः स च स्वपक्षपरपक्षयोस्तद् भीरुहिप्रतिवन्धेन मा मां प्रविशन्तमवलोक्यान्ये साधवः सीगतादयो वाऽत्रप्रवेक्ष्यन्तीति। ७. दी सेकेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग ४५, उत्तराध्ययन पृ० १५१, फुटनोट नं०१६ ८. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, अनुवाद डा० हेमचन्द्र जोशी, पृ०७३२। ९. सुखबोधा, पत्र ३१७ : अणुसासम्मि त्ति अनुशास्मि। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५२ : अणुसासंमि त्ति आषत्वादनुशास्ति गुरुरिति गम्यते, यदा त्वाचार्य आत्मनः समाधि प्रतिसंधत्ते इति व्याख्या तदाऽनुशास्मीति व्याख्येयम् । ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २७१। १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५३ । १३. वही, पत्र ५५३ : 'पलिउंचंति' त्ति तत्प्रयोजनानिष्पादने पृष्टाः सन्तोऽपहनुवते-क्व वयमुक्ताः ? गता वा तत्र वयं, न त्वसी दष्टेति। १४. The Sacred Books of the Fast, Vol. XI.V, Uttaradhyayana, p. 151 १५. बृहवृत्ति, पत्र ५५३ : 'राजवेष्टिमिव' नृपतिहठप्रवर्तितकृत्यमिव । १६. देशीनाममाला, २४३, पृ० ६६ 90. The Sacred Books of the East, Vol. XLV. Uttaradhyavana, p. 151, Foot Note No. 3. १८. बृहबृत्ति, पत्र ५५३ : श्रम-खेदमागतः प्राप्तः श्रमागतः। १६. सुखबोधा, पत्र ३१७ : समागताः--संयुक्ताः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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