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जीवाजीवविभक्ति
जो जीव मनुष्य के मल, मूत्र, श्लेष्म आदि में उत्पन्न होते हैं, उन्हें उपचार से सम्मूच्छिम मनुष्य कहा जाता है। २३. (श्लोक १८६)
प्रस्तुत श्लोक में तीन प्रकार के गर्भज मनुष्यों का निर्देश
६३९ अध्ययन ३६ : श्लोक १६६-२५६ टि० २३-२७ २५. (अप्पाणं संलिहे मुणी)
संलेखना का अर्थ है-कृश करना। जैन परम्परा में अनशन से पूर्व की जाने वाली विशेष तपस्या को संलेखना कहा गया है। इसकी पूरी विधि गाथा २५० से २५५ तक वर्णित है।
१. कर्मभूमिव जहां असि मषि, कृषि, पशुपालन, शिल्पकर्म, वाणिज्य आदि कर्मों से आजीविका प्राप्त की जाती है, उस भूमि को कर्मभूमि कहा जाता है। ढाई द्वीप में वैसी भूमियां पन्द्रह हैं – पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच विदेह । इन्हीं भूमियों के मनुष्य मोक्ष की साधना कर पाते हैं।
२. अकर्म भूमिज - जहां मनुष्य युगलरूप में ( एक लड़की एक लड़का ) उत्पन्न होते हैं और जहां जीवन की आवश्यकताएं कल्पवृक्षों से पूरी होती हैं, उस भूमि को अकर्मभूमि कहा जाता है। यहां के स्त्री-मनुष्य अपनी प्रकृतिभद्रता तथा मन्द कषाय के कारण मृत्यु के पश्चात् देवलोक में उत्पन्न होते हैं । अकर्मभूमियां तीस है-पांच हैमवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच हैरण्यवत, पांच देवकुरु तथा पांच उत्तरकुरु ।
३. अन्तर्दीपज——– लवणसमुद्र के तीन सौ योजन भीतर हिमवत् के पाद में स्थित २८ अन्तर्दीप तथा शिखरी के पाद में स्थित २८ अन्तर्वीप हैं। इस प्रकार ५६ अन्तद्वीप हैं ।' गाथा १६७ में सूत्रकार केवल २८ अन्तद्वीपों का उल्लेख करते हैं। यह हिमवत् के पाद में प्रतिष्ठित अन्तर्वीपों का ही कथन है। उन द्वीपों में एकोरुक्, हयकर्ण, गजकर्ण आदि युगलधर्मी मनुष्य रहते हैं। उनके शरीरमान आदि इस प्रकार हैं-'अंतरदीवेसु णरा घणुसय अठूसिया सया मुइया । पा ंति मिहुणभाव, पल्लस्स असंखभागाऊ ।।' 'चउसट्टी पिट्ठकरंडयाण मणुयाण तेसिमाहारो । भत्तस्स चउत्थस्स अउणसीइदिणाण पालणया ।।' (बृहदवृत्ति, पत्र ७०० )
२४. बगचारिणो
यह देवताओं की एक जाति है। इनका अपर नामवाणव्यंतर, व्यंतर भी है। ये आठ प्रकार के हैं। ये विचित्र प्रकार के उपवनों तथा गिरिकंदराओं, वृक्षों पर रहते हैं। ये विशेष कुतूहलप्रिय और क्रीडारसिक होते हैं ये ऊर्ध्व, अयो तथा तिर्यग्— तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं तथा स्वतंत्र रूप से अथवा दूसरों के द्वारा नियुक्त होकर अनियत गति से संचरण करते हैं । ये मनुष्यों की एक सेवक की भांति सेवा करते हैं ।
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9. नंदी वृत्ति, पृ० ३३ : त्रीणि योजनशतानि लवणजलधिजलमध्यमधिलंध्य हिमवच्छिखरिपादप्रतिष्ठिता एकोरुकाद्याः षट्पञ्चाशदन्तद्वीपा भवन्ति । २. उत्तरज्झयणाणि ३६ । २०७ ।
३. बृहद्वृत्ति, पत्र ७०१ ।
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विशेष विवरण के लिए देखें-तीसवें अध्ययन का १२-१३ श्लोक का टिप्पण
२६. (श्लोक २५२-२५५)
प्रस्तुत चार श्लोकों में तपस्या के प्रकारों का नामोल्लेख
१. विचित्र तप — उपवास, बेला, तेला आदि तप । २. विकृष्ट तप-तेला, चोला आदि तप ।
३. कोटिसहित तप— कोटि का अर्थ है— कोण। पहले दिन आयंबिल का प्रत्याख्यान कर, उसका अहोरात्र पालन कर, दूसरे दिन पुनः आचाम्ल करने से दूसरे दिन के आचाम्ल का आरम्भ-कोण तथा प्रथम दिन के आचाम्ल का पर्यंत कोण— दोनों कोणों के मिलने से इसको कोटि सहित तप कहा जाता है।
विशेष विवरण के लिए देखें-३०।१२, १३ का टिप्पण । २७. (श्लोक २५६ )
इस श्लोक में पांच संक्लिष्ट भावनाओं का उल्लेख है। 1 उनके लक्षण और प्रकार २६३ से २६७ तक के श्लोकों में बतलाए गए हैं। उत्तरवर्ती साहित्य में भी इसका निरूपण होत रहा है। यहां हम उत्तराध्ययन के साथ-साथ मूलाराधना और प्रवचनसारोद्धार में चर्चित इन भावनाओं का अध्ययन करेंगे। वे उत्तराध्ययन से पूर्णतः प्रभावित हैं ।
उत्तराध्ययन
मूलाराधना
प्रवचनसारोद्धार
भावना नाम
(१) कान्दप,
(२) आभियोगी
(१) कान्दर्पी, (१) कान्दर्पी, (२) कल्दिपिकी, (२) कल्यिधिकी, (३) आभियोगी, (२) आभियोगी, (४) आसुरी और (४) आसुरी और (५) सम्मोहा। (५) सम्मोहा। १. कान्दर्पी भावना के प्रकार
(३) किल्बिषिकी, (४) आसुरी और (५) सम्मोहा।
उत्तराध्ययन
(१) कन्दर्प,
(२) कौत्कुल्प,
४. मूलाराधना, ३११७६
कंदण्यदेवखिटिभस, अभिओगा आसुरी य सम्मोहा। एदा हु संकिलिट्टा पर्चाविहा भावणा भणिद ।। ५. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४१ :
कंदष्पदेव किव्विस, अभिओगा आसुरी य सम्मोहा। एसा हू अप्पसत्था, पंचविहा भावणा तत्थ ।
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