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प्रवचन-माता
३९५ अध्ययन २४ : श्लोक ८-१३ दि० ५-८ है। इस प्रकार चलने वाले भिक्षु 'कौक्केटिक' कहलाते हैं।' ५. हास्य- हास्य के वशीभूत होकर व्यक्ति मजाक-मजाक ५. (श्लोक ८)
में कुलीन व्यक्ति को भी अकुलीन बता देता प्रस्तुत श्लोक में गमनयोग का निर्देश है। चलते समय भी ध्यान किया जा सकता है। ध्यान का लक्षण है उपयुक्त ६. भय- भय से वशीभूत होकर व्यक्ति अपने द्वारा होना लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित्त, दत्तचित्त अथवा समर्पित
आचरित अनाचार के विषय में पूछे जाने होना। उपयुक्त अवस्था में व्यक्ति अपने लक्ष्य के साथ तन्मूर्ति
पर कहता है-मैं उस समय वहां था ही तन्मय हो जाता है। गमनयोग के समय गमन करने वाला और
नहीं। गति दो नहीं रहते। गमन करने वाला स्वयं गति बन जाता है।
७. मौखर्य- वाचालता के वशीभूत होकर व्यक्ति दूसरों उपयुक्त अवस्था में केवल लक्ष्य ही सामने रहता है, शेष विषय
की निन्दा में मशगूल हो जाता है। गौण हो जाते हैं। इन दोनों अर्थों का बोध कराने के लिए ८. विकथा- विकथा में लीन व्यक्ति स्त्रियों के सौन्दर्य, तम्मुत्ति और तप्पुरक्कार-इन दो विशेषणों का प्रयोग किया
लावण्य, कटाक्ष आदि की प्रशंसा करने लग गया है।
जाता है। वृत्तिकार ने मूर्ति का अर्थ शरीर किया है। उनके स्थानांग १०/६० में झूठ बोलने के दस कारणों का अनुसार शरीर और मन-दोनों गमन के प्रति तत्पर हो जाते निर्देश है। उनमें प्रेयस्-निश्रित, द्वेष-निश्रित और हैं और उस समय वचन का व्यापार भी नहीं होता।
उपघात-निश्रित-ये तीन अधिक हैं। मौखर्य का वहां उल्लेख बौद्धों की भाषा में इसे 'स्मति-प्रस्थान' कहा जा सकता है। नहीं है। ६. (श्लोक ९-१०)
७. परिभोगैषणा में दोष-चतुष्क (परिभोयंमि चउक्क) प्रस्तुत दो श्लोकों में वाणी का विवेक बतलाया गया है। इस चरण में यह बताया गया है कि मुनि परिभोग-एषणा चर्णिकार ने कहा है पहले देखों, समीक्षा करो, फिर वाणी का में चार वस्तुओं—(१) पिंड, (२) शय्या-वसति, (३) वस्त्र प्रयोग करो। समीक्षापूर्वक बोलना ही वाणी का विवेक है- और (४) पात्र- का विशोधन करे। 'पुव्यं बुद्धीए पासेत्ता, पच्छा वक्कमुदाहरे। क्रोध आदि आठ दशवैकालिक (६।४७) में अकल्पनीय पिंड आदि चारों कारणों से वाणी का विवेक विनष्ट हो जाता है। वे आठ कारण को लेने का निषेध किया गया है। प्रकारान्तर से चतुष्क के ये हैं
द्वारा संयोजना आदि दोषों का ग्रहण किया गया है। यद्यपि १. क्रोध- क्रोध के आवेश में व्यक्ति झूठ बोल देता भोजन के संयोजन, अप्रमाण, अंगार, धूम, कारण आदि पांच
है—पिता अपने पुत्र से कह देता है—तु दोष हैं, फिर भी शान्त्याचार्य ने अंगार और धूम दोनों को मेरा पुत्र नहीं है।
एक-कोटिक मान यहां इनकी संख्या चार मानी है। २. मान- मान के आवेश में व्यक्ति झूठ बोल देता ८. (ओहोवहोवग्गहियं)
है—वह कहता है—जाति, ऐश्वर्य आदि में उपधि दो प्रकार के होते हैं-ओघ उपधि और औपग्रहिक
मेरी बराबरी करने वाला कोई नहीं है। उपधि। ३. माया– माया के आवेश में व्यक्ति अपरिचित स्थान जो स्थायी रूप से अपने पास रखा जाता है उसे
में दूसरों को संशय में डालने के लिए झूठ 'ओघ-उपधि' और जो विशेष कारणवश रखा जाता है उसे बोल देता है-वह कह देता है-न यह 'औपग्रहिक-उपधि' कहा जाता है। जिनकल्पिक मुनियों के
मेरा पुत्र है और न मैं इसका पिता हूं। बारह, स्थविरकल्पिक मुनियों के चौदह और साध्वियों के ४. लोभ-लोभ के आवेश में व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं पच्चीस ओघ-उपधि होते हैं। इससे अधिक उपधि रखे जाते को अपनी बताने लगता है।
हैं, वे सब औपग्रहिक होते हैं।"
१. पाणिनि अष्टाध्यायी ४।४।४६। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५१६ : ततश्च तस्यामेवेर्यायां मूर्तिः-शरीरमाद्व्यप्रियमाणा
यस्यासी तन्मूर्तिः ।....अनेन कायमनसोस्तत्परातोक्ता, वचसो हि तत्र
व्यापार एव न समस्ति। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६७।
बृहवृत्ति, पत्र ५१६ । वही, पत्र ५१७ : ‘परिभोग' इति परिभोगैषणायां चतुष्क पिण्डशय्यावस्त्रपात्रात्मकम्, उक्तं हि-'पिंड सेज्जं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य' त्ति, विशोधयेत्, इह चतुष्कशब्देन, तद्विषय उपभोग
उपलक्षितः, ततस्तं विशोधयेदिति, कोऽर्थः?-उद्गमादिदोषत्यागतः शुद्धमेव चतुष्कं परिभुजीत्, यदि वोद्गमादीनां दोषोपलक्षणत्वात् 'उग्गम' त्ति उद्गमदोषानू 'उप्पायणं' ति उत्पादनादोषान् ‘एसण' त्ति एषणादोषान विशोधयेत्, 'चतुष्क च' संयोजनाप्रमाणागारधूकारणात्मकम्,
अड़्गारधूमयोर्मोहनीयान्तर्गतत्वेनैकतया विवक्षितत्वात्। ६. ओघनियुक्ति, गाथा ६६७ :
ओहे उवग्गहँमि य दुविहा उवही य होइ नायव्योः ७. वही, गाथा ६७१-६७७।
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