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________________ उत्तरज्झयणाणि ३९६ अध्ययन २४ : श्लोक १३-२६ टि० ६-१३ ९. उपकरणों को (भंडग) योगों के सन्दर्भ में संरम्भ, सभारम्भ और आरम्भ की चर्चा है। इसका अर्थ है-उपकरण। ओघनिर्यक्ति के अनसार तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार कषाययुक्त प्रवृत्ति संरम्भ, परितापनायक्त उपधि, उपग्रह, संग्रह, प्रग्रह अवग्रह, भंडक उपकरण और प्रवृत्ति समारम्भ और प्राणव्यपरोपणयुक्त प्रवृत्ति आरम्भ है। करण--ये सब पर्यायवाची हैं। बृहद्वत्तिकार के मानसिक, वाचिक और कायिक हिंसा १०. प्रतिलेखन कर (पडिलेहित्ता) के सन्दर्भ में संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ को इस प्रकार समझाया हैयह सामयिक शब्द है। इसका अर्थ है-सूक्ष्मता से निरीक्षण करना। सामान्यतः यह वस्त्र, पात्र, भूमी आदि के १. मानसिक हिंसानिरीक्षण के लिए प्रयुक्त होता है। संरंभ-किसी की मृत्यु का मानसिक संकल्प। समारंभ--पर-पीड़ाकारक उच्चाटन आदि का हेतुभूत ११. (श्लोक १६-१८) चिन्तन। ____ इन श्लोकों में परिष्ठापन विधि का समुचित निर्देश हुआ आरम्भ----अत्यन्त क्लेश के कारण दूसरे के प्राणों का है। मुनि कहां और कैसे परिष्टापन करे, इसकी विधि बतलाते अपहरण करने में समर्थ अशुभ ध्यान । हुए कहा है कि गांव और उद्यानों से दूरवर्ती स्थानों में तथा २. वाचिक हिंसाकुछ समय पूर्व दग्ध स्थानों में मल आदि का विसर्जन करे। संरंभ-दूसरों को मारने में क्षम क्षुद्रविद्याओं का जाप पकाल पूर्वक दग्ध-स्थान हा सवथा आचत्त करने वाली संकल्प सूचक ध्वनि। (जीव-रहित) होते हैं। जो चिरकाल दग्ध होते हैं, वहां पृथ्वीकाय सभारम्भ-पर पीड़ाकारक मंत्रों का परावर्तन। आदि के जीव पुनः उत्पन्न हो जाते हैं। आरंभ--दूसरों के प्राणव्यपरोपण करने में समर्थ मन्त्र पन्द्रह कर्मादानों में 'दव-दाह' एक प्रकार है। यह दो आदि का जा प्रकार का होता है ३. कायिक हिंसा(१) व्यसन से--अर्थात् फल की उपेक्षा किये बिना ही संरंभ-प्रहार करने की दृष्टि से लाठी, मुष्टि आदि उठाना। वनों को अग्नि से जला डालना। सभारंभ-दूसरों के लिए पीड़ादायक मुष्टि आदि का (२) पुण्य-बुद्धि से-अर्थात् कोई व्यक्ति करते समय अभियान यह कहकर मरे की मेरे मरने के बाद इतने धर्म-दीपोत्सव आरम्भ-प्राणि-वध में शरीर की प्रवृत्ति। अवश्य करना। ऐसी स्थिति में भी वन आदि जलाये जाते हैं। चूर्णिकार ने एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है - अथवा धान्य आदि की समृद्धि के लिए खेतों में उगे हुए तृण संकल्प: संरम्भः, परितापकरो भवेत् समारम्भः। आदि जलाये जाते थे। आरम्भ: व्यापत्तिकरः, शुद्धनयानां तु सर्वेषाम् ।। उपर्युक्त प्रवृत्तियां उस समय प्रचलित थीं, अतः मुनियों १३. (श्लोक २६) को दग्ध-स्थान सहज मिल जाते थे। १२. (श्लोक २०-२५) प्रस्तुत श्लोक में प्रसंग में वृत्तिकार ने गुप्ति के विषय में प्रस्तुत प्रकरण में मानसिक, वाचिक और कायिक अहिंसा आचार्य गन्धहस्ती का मत प्रस्तुत करते हुए लिखा है राग-द्वेष रहित मन की प्रवृत्ति, काया की प्रवृत्ति और वाणी की का सुन्दर चित्रण किया गया है। मनोगुप्ति मानसिक अहिंसा का, वचनगुप्ति वाचिक अहिंसा का और कायगुप्ति कायिक प्रवृत्ति गुप्ति है। उसका दूसरा अर्थ-मन, वाणी और काया अहिंसा का प्रायोगिक रूप है। संरंभ, सभारंभ और आरम्भ--- की निर्व्यापार या प्रवृत्तिशून्य अवस्था—किया है।" ये मानसिक, वाचिक और कायिक हिंसा के तीन-तीन रूप हैं। जीवन यात्रा के लिए प्रवृत्ति अपेक्षित होती है और असंरंभ, असभारंभ और अनारम्भ-ये मानसिक, वाचिक अशुभ से बचने के लिए निवृत्ति अपेक्षित होती है। मुनि के और कायिक अहिंसा के तीन-तीन रूप हैं। जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का सन्तुलन होता है। सूत्रकार __ तत्त्वार्थ ६/६ में मन, वचन और काया-इन तीन ने प्रस्तुत श्लोक में इस सन्तुलन का प्रतिपादन किया है। १. ओघनियुक्ति, गाथा ६६६। समारम्भः-परपरितापकरमंत्रादिपरावर्त्तनम्, आरम्भः तथाविधसंक्लेशतः उवही उवग्गहे संगहे य तह पग्गहुग्गहे चेव। प्राणिनां प्राणव्यपरोपणक्षममन्त्रादिजपनमिति। भंडगं उवगरणे य करणे वि य हुंति एगट्ठा।। बृहद्वृत्ति, पत्र ५१६ : ततः स्थानादिसु वर्तमानः संरम्भः-अभिघातो २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५१८ : 'अचिरकालकृते च' दाहदिना स्वल्पकालनिर्वर्तिते, यष्टिमुष्टयादिसंस्थानमेवसंकल्पसूचकमुपचारात् संकल्पशब्दबाच्यं सत् चिरकालकृते हि पुनः संमूर्छन्त्येव पृथ्वीकायादयः। समारम्भः-परितापकरो मुष्ट्याद्यभिघातः, ....आरंभे-प्राणिवधात्मनि कार्य ३. प्रवचन सारोद्धार, गाथा २६६ वृत्ति, पत्र ६२। प्रवर्त्तमानम्। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५१८ : संरम्भः संकल्पः स च मानसः, तथाऽहं ध्यास्यामि ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट २६७। यथाऽसौ मरिष्यतीत्येवंविधः, समारम्भः-परपीडाकरोच्चाटनादिनिबन्धनं ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५१६, ५२० : उक्तं हि गन्धहस्तिना-सम्यगागमानुसारेणा ध्यानम्....आरम्भः-अत्यन्तक्लेशतः परप्राणापहारक्षममशुभध्यानमेव । रक्तद्विष्टपरिणतिसहचरितमनोव्यापारः कायव्यापारो वाग्व्यापारश्च ५. वही, पत्र ५१६ : तथा वाचिकः संरम्भः-परव्यापादनक्षमक्षुद्रविद्यादि- निर्व्यापारता वा वाक्काययोर्गुप्तिरिति, तदनेन व्यापाराव्यापारात्मिका परावर्तनासंकल्पसूचको ध्वनिरेवोपचारात् संकल्पशब्दवाच्यः सन्, गुप्तिरुक्ते ति। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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