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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १४ : टि०४८-५२ ४१. पथ्य है (पत्थं)
महाभयंकर रोगों के होने पर भी जो अनशन, काया-क्लेश आदि इसके संस्कृत पर्याय चार होते हैं-पथ्य, प्रार्थ्य, पार्थ में मन्द नहीं होते और भयानक श्मशान, पहाड़ की गुफा आदि और प्रस्थ । प्रस्तुत प्रसंग में पथ्य और प्रार्थ्य-ये दोनों उचित में रहने के अभ्यासी हैं वे 'घोर तप' हैं। ये ही जब तप और लगते हैं।
योग को उत्तरोत्तर बढ़ाते जाते हैं तब 'घोर पराक्रम' कहे जाते ४२. निर्विषय (निव्विसय)
हैं। यह व्याख्या तत्त्वार्थ राजवार्तिक में प्राप्त होती है।'
पचासवें श्लोक के अन्तिम दो चरणों के अनुसार यह उपयुक्त विषय शब्द के दो अर्थ होते हैं-शब्द आदि विषय और
प्रतीत होती है। 'तवं पगिज्झऽहक्खायं घोर घोरपरक्कमा' इसमें देश। वृत्तिकार ने निर्विषय का मूल अर्थ शब्द आदि इन्द्रिय
घोरता की भावना निहित है और 'घोरपरक्कमा' उसी का अग्रिम विषयों का त्याग और वैकल्पिक अर्थ देश-त्याग किया है।'
रूप है। चूर्णि और टीका में इनका केवल शाब्दिक अर्थ मिलता चूर्णि में पहला अर्थ ही मान्य है। प्रस्तुत प्रसंग में विपुल राज्य को छोड़ने के कारण निर्विषय का अर्थ-देश रहित ही होना
४४. (सासणे विगयमोहाणं, पुचि भावणभाविया) चाहिए।
इन ६ जीवों ने पूर्व में जैन शासन में दीक्षित होकर ४३. घोर पराक्रम करने लगे (घोरपरक्कमा)
अनित्य, अशरण आदि भावनाओं के द्वारा अपनी आत्मा तप के अतिशय की ऋद्धि सात प्रकार की बतलाई गई है। को भावित किया था। इन चरणों में उसी तथ्य की सूचना दी गई उसका छट्ठा प्रकार 'घोर पराक्रम' है। ज्वर, सन्निपात आदि है।
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४११। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३१॥
३. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ३३६, पृ० २०३। ४. बृहवृत्ति, पत्र ४१२।
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