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________________ इषुकारीय २५१ अध्ययन १४ :श्लोक ४०-४४ टि०३१-४० ३१. मरना होगा (मरिहिसि......) और 'निर' के साथ तथा स्वतंत्र रूप में और ४६ वें श्लोक में 'जातस्य ही ध्रुवो मृत्युः'—यह अटल सिद्धान्त है। जो 'निर' के साथ---इस प्रकार आमिष शब्द का छह बार प्रयोग जन्मता है, वह अवश्य ही मरता है, फिर चाहे कोई राजा हो हुआ है। ४६ वें श्लोक के प्रथम दो चरणों में वह मांस के अर्थ या रंक, स्त्री हो या पुरुष। कहा भी है में तथा शेष स्थानों में आसक्ति के हेतुभूत काम-भोग या धन १. 'घुवं उड्ढे तणं कठ्ठ, धुवभिन्नं मट्टियामयं भाणं। के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जातस्य धुवं मरणं, तूरह हितमप्पणो काउं।। बौद्ध साहित्य में भी धन या भोग के अर्थ में आमिष ३. कश्चित् तावत् त्वया दृष्टः श्रुतो वा शकितोऽपिवा। शब्द का प्रयोग हुआ है।" देखें-उत्तरज्झयणाणि, ८।५ का क्षितौ वा यदि वा स्वर्गे, यो जातो न मरिष्यति॥२ टिप्पण। ३७. (परिग्गहारंपनियत्तदोसा) ३२. एक धर्म ही त्राण है (एक्को हु.....) जो आरम्भ और परिग्रह के दोष से निवृत्त हो गई हो उस _ 'मरणसमं नत्यि भयं'-मरण के समान दूसरा कोई भय नहीं है। धर्म इस भय से त्राण दे सकता है। स्त्री का विशेषण ‘परिग्रहारम्भदोषनिवृत्ता' होता है। शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप में 'परिग्रहारम्भनिवृत्ता' और 'अदोषा' ये दो महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन को डॉक्टर ने कहा-एक विशेषण भी माने हैं। ऑपरेशन और करना होगा। आइंस्टीन ने कहा-“मैं हठपूर्वक जीना नहीं चाहता। मुझे जितना समय जीना था जी लिया। जो ३८. राग-द्वेष...... (रागद्दोस......) काम करना था, कर लिया। अब मेरे मन में जीने की कोई 'दावाग्नि लगी हुई है। अरण्य में जीव-जन्तु जल रहे हैं। आकांक्षा नहीं है।" उन्हें देख राग-द्वेष के वशीभूत होकर दूसरे जीव प्रमुदित हो रहे ३३. (इहेह) हैं।' प्रस्तुत प्रसंग में द्वेष शब्द की सार्थकता हो सकती है, पर राग शब्द की उपयोगिता क्या है ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। राग इसमें 'इह' शब्द का दुबारा प्रयोग है-इह+इह इहेह। का अर्थ यदि मनोरंजन किया जाए तो प्रसंग की संगति बैट यह दुबारा होने वाला प्रयोग सम्भ्रम का सूचक है।' सकती है। अथवा अपने प्रति राग और दूसरों के प्रति द्वेष अर्थ ३४. पिंजड़े (पंजरे.....) हो तो दोनों की सार्थकता हो सकती है। तुलना-- सच्चाई यह है कि किसी के प्रति द्वेष होने का अर्थ उद्घाटिते नवद्वारे पजरे विहगोऽनिलः। है—किसी के प्रति राग है। राग मौलिक प्रवृत्ति है। द्वेष उसका यत्तिष्ठति तदाश्चर्य, प्रयाणे विस्मयः कुतः।। एक स्फुलिंग है। इसलिए जहां द्वेष है वहां राग का होना ३५. सरल क्रियावाली (उज्जु कडा) नैसर्गिक है। चूर्णि में इसका अर्थ-अमायी और वृत्ति में मायारहित ३९. वायु की तरह अप्रतिबद्ध विहार करते हैं (लहुभूयविहारिणो) अनुष्ठान दिया है। यही शब्द १५१ में भी प्रयुक्त हुआ है। वायु की तरह विहार करने वाला अथवा संयमपूर्वक वहां चर्णि के अनुसार इसका अर्थ है. जो व्यक्ति ज्ञान, दर्शन, विहार करने वाला 'लघुभूतविहारी' कहलाता है। मिलाइएचारित्र और तप से अपने भावों को ऋजु बना लेता है, वह दसवेआलियं ३१०। ऋजुकृत कहलाता है। वृत्तिकार ने ऋजु के दो अर्थ किए हैं- ४०. स्वेच्छा से निवारण करने वाले (कामकमा) संयम अथवा मायारहित अनुष्ठान। जो अपनी स्वतंत्र इच्छा से इधर-उधर घूमते हैं वे ३६. विषय-वासना से दूर (निरामिसा) कामक्रम कहलाते हैं। मुक्त पक्षी अपनी इच्छा के अनुसार सभी इस श्लोक में 'निर' के साथ और ४६ वें श्लोक में 'स' । दिशाओं में उड़ने के लिए स्वतंत्र होते हैं। वे अप्रतिबद्ध होते हैं। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३०। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०८। ३. बृहदवृत्ति, पत्र ४०६ : इहेहे ति दीप्ताभिधानं सम्भ्रमख्यापनार्थम् । ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३० : उज्जुकडा-अमायी। (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ४०६ : ऋजु-मायाविरहितं, कृतं अनुष्ठितमस्या इति ऋजुकृता। ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२३४ : ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभिः उज्जुकडे- ऋजुभावं कृत्वा। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ४१४ । ६. वृहवृत्ति, पत्र ४१० : सहामिषेण-पिशितरूपेण वर्तत इति सामिषः। ७ (क) बृहदवृत्ति, पत्र ४०६ : निष्कान्ता आमिषाद्-गृन्द्रितोरभिल षितविषयादेः। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१० : 'आमिषम्' अभिष्वंगहेतु धनधान्यादि। ८. मज्झिमनिकाय, २।२।१०, पृ०२७८। ६. बृहवृत्ति, पत्र ४०६ : निवृत्ता-उपरता परिग्रहारम्भदोषनिवृत्ता, यद्वा परिग्रहारम्भनिवृत्ता अतएव चादोषा-विकृतिविरहिता। १०. बृहदवृत्ति, पत्र ४१० : लघुः-वायुस्तद्वद्भूतं-भवनमेषां लघुभूताः, कोऽर्थः ? वायूपमाः तथाविधाः सन्तो विहरन्तीत्येवंशीलाः लघुभूतविहारिणःअप्रतिबद्धविहारिण इत्यर्थः, यद्वा लघुभूतः-सयमस्तेन विहर्तुं शीलं येषां ते तथाविधाः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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